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गुरुवार, 31 जुलाई 2014

समंदर

       समंदर

 समंदर ,समंदर,समंदर,समंदर
भला हो,बुरा हो,खरा हो या खोटा ,
समा जाता सब कुछ ही है इसके अंदर
समंदर,समंदर,समंदर,समंदर
उठा करते दिल में है लहरों के तूफां ,
मचलता है  चंदा को लख ,पागलों सा
उडा ताप सूरज का  देता है , पानी,
तो बनते है बादल,जनक बादलों का 
बढ़ता ही जाता है खारापन मन में,
पर कुछ ऐसा जादू है उसकी कशिश में
भरे मीठा जल ,दौड़ती सारी नदियां ,
इससे मिलन को, समाने को इसमें
सीपों में स्वाति की बूंदे ठहरती ,
समा कर के इसमें है ,मोती बनाती
इसे मथने से रत्न सोलह निकलते ,
अमृत कलश और लक्ष्मी भी आती
बड़ी व्हेल सुरसा सी,या छोटी मछली ,
सभी को सहारा ,मिले इसके अंदर
समंदर,समंदर ,समंदर ,समंदर

मदन मोहन बाहेती'घोटू'


क्या वो शख्स मैं ही हूँ?

         क्या वो शख्स मैं ही हूँ?  

मैं जब भी आइना देखता हूँ,
मुझे एक शख्स नज़र आता है
जिसका हुलिया,एकदम ,
मेरी तरह का ही दिखलाता है
पर कभी कभी ,ये लगता है,
मैं कोई अनजान , अजनबी हूँ  
और  मैं  यह नहीं समझ पाता ,
कि क्या वो शख्स मैं ही  हूँ   ?
एक शैतान  बच्चा जो अपने भाई बहनो की ,
गुल्लक तोड़ कर ,पैसे चुराया करता था
और उन पैसों से चोरी चोरी ,गोलगप्पे ,
 बर्फ का गोला और टाफियां खाया करता था
जो बरसात में ,घर के आगे बहती नालियों में ,
कागज़ की नाव  तैराया करता था
और उसके साथ ,दूर तक भाग भाग कर ,
तालियां  बजाया  करता  था
 वो  जो  दरख्तों पर  लगे आम या इमलियां
पत्थर फेंक फेंक कर तोडा करता था
कभी लट्टू घुमाता ,कभी गिल्ली डंडे खेलता ,
कभी पतंगों को लूटने ,दौड़ा करता था
और दिन भर की मस्ती के बाद ,
थका हारा ,जब पस्त  हो जाता था
तो  बूढी  दादी अम्मा  की गोदी में ,
अपना सर रख कर  ,सो जाता था 
वो शख्स ,जीवन की आपाधापी में ,
लुटी पतंग की डोर सा उलझ गया है
गिल्ली डंडे खेलने वाला ,तकदीर के डंडे खा,
इधर उधरगुम होने वाली,गिल्ली बन गया है
गृहस्थी चलाने के चक्कर में ,
दिन भर लट्टू सा घूमता रहता है
 कागज़ की नाव की तरह ,
कभी डूबता ,कभी इधर उधर बहता है
वो शख्स ,जिसकी आँखों में चमक होती थी ,
और जो रहता था,सदा मुस्कराता
उसकी पेशानियों पर ,अब परेशानी है,
और बुझा बुझा सा ,चेहरा है नज़र आता
लोग कहते है ,आइना झूंठ नहीं बोलता ,
तो क्या मैं झूंठ बोल रहा हूँ
दुनियादारी के कीचड में लथपथ,
क्या वो शख्स मैं  ही हूँ ?

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

बुधवार, 30 जुलाई 2014

आज का ज़माना

                आज का ज़माना

ज़माना ऐसा आया है ,आपको हम क्या बतलाएं
हो रही रोज ही अगवा ,यहाँ कितनी ही सीताएं
बढ़ रही रावणो की भीड़ है इस कदर दुनिया में ,
  नहीं कोई  जटायु  है ,बचाने  सामने  आये
कचहरी ,कोर्ट में अब राम रावण युद्ध होता है ,
नहीं हनुमान कोई सोने की लंका जला पाये
भले कलयुग है लेकिन त्रेता युग की दास्ताने सब,
नए अंदाज से फिर से यहाँ ,  दोहराई  है  जाए
नहीं होती अगर पूजा ,कुपित है इंद्र हो जाता ,
नहीं कान्हा ,बचाने को ,जो गोवर्धन ,उठा पाये
दुशासन,द्रोपदी का चीर हरता ,सामने सबके,
नहीं हिम्मत किसी की है,बचाने के लिए  आये
 कई पांडव,कई कौरव,शकुनि मामा है कितने ,
कृष्ण बन कर ,वकीलों से ,लड़ाई को है उकसाये
भले कलयुग है द्वापरयुग की लेकिन दास्ताने सब,
नए अंदाज से फिर से ,यहाँ दोहराई  है जाये

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

हर युग का किस्सा

               हर युग का किस्सा

कहीं कोई अपहरण हो गया ,चीर किसी का हरण हो गया ,
पति ने पत्नी को मरवाया ,समाचार ये नित्य  आ रहा
सम्पति के विवाद में भाई ने भाई को मारी गोली,
सुन कर समाचार हम कहते ,कैसा कलयुग घोर छारहा
किन्तु अगर इतिहास उठा कर,देखेंगे तो ये पाएंगे ,
इस युग की ही बात नहीं है ,यह तो है हर युग का किस्सा 
जार,जोरू ,जमीन का झगड़ा ,युगों युगों से चलता आया ,
महाभारत का युद्ध हो गया ,पाने अपना अपना  हिस्सा
हर युग में कैकेयी जैसी माताओं में कुमति जागती,
और राम को चौदह वर्षों का वनवास मिला करता है
हर युग में होता है रावण ,जो साधू का वेष धार कर ,
लक्ष्मण रेखा लंघवाता है,भोली सीता को हरता  है
कितने भाई विभीषण जैसे,पैदा होते है हर युग मे,
जो कि घर का भेद बता कर ,मरवाते भाई रावण को
हर युग में अफवाहें सुनकर,अपनी गर्भित पत्नी को भी ,
राजाराम ,लोकमत से डर ,सीता त्याग,भेजते वन  को
ध्रुव का तिरस्कार करती है ,हर युग में सौतेली मायें  ,
मरवाता प्रह्लाद पुत्र को ,हिरण्यकश्यप,निज प्रभुता हित
और युधिष्ठिर जैसे ज्ञानी ,द्युत क्रीड़ा में ,मतवाले हो,
निज पत्नी का ,दाव लगाने में भी नहीं हिचकते,किंचित
अपनी पूजा ना होने पर,होता इंद्र कुपित हर युग में,
तो गोवर्धन उठा ,सभी की,रक्षा कान्हा करता भी है 
सात भांजे,भांजियों का ,पैदा होते,हनन करे जो,
ऐसा कंस ,आठवें भगिनी सुत के हाथों ,मरता भी है
ये सब कुछ,त्रेता,द्वापर में ,होता था,अब भी होता है
कलयुग कह कर के इस युग को,क्यों बदनाम कर रहे है हम
क्रोध,झूंठ और मोह,पिपासा ,अहम ,स्वार्थ,मानव स्वभाव है
कोई युग  कैसा  भी  आये,  ये मौजूद  रहेंगे, हरदम

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

मंगलवार, 29 जुलाई 2014

'हरेक में छुपा है ,एक छोटा सा बच्चा '

'हरेक में छुपा है ,एक छोटा सा बच्चा '

बड़े  सख्त दिल के है दीखते जो इन्सां ,
         रहे झाड़ते रौब ,हमेशा ही,जब तब
झलकते  है उनकी भी आँखों में आंसूं,
       विवाह करके बेटी,बिदा करते है जब
बाहर से कोई दिखे सख्त दिल पर ,
       है दिल मोम  का और भरा प्यार सच्चा
बड़ा कोई कितना भी बन जाए लेकिन,
      हरेक में छुपा है ,एक छोटा सा बच्चा
अम्मा की गोदी में जब रखता माथा ,
     ममता से अम्मा ,जब  सहलाती सिर  है
आँखों में छा जाती बचपन की यादें ,
    लौट आता प्यारा सा, बचपन वो फिर है
नज़र फिर से आता है ,भोलापन वो ही ,
    वही प्यारी मीठी सी,बातों का  लच्छा
बड़ा कोई कितना भी बन जाए लेकिन,
    हरेक में छुपा  है एक छोटा सा बच्चा
नफासत,नज़ाकत,शराफत का पुतला,
          बड़े ही अदब से ,सदा पेश आता  
बड़े ही सलीके से,काँटा छुरी से ,
          है खाने की टेबल पे ,खाना जो खाता
अकेले में,ठेले पे,खा गोलगप्पे,
          या गोला बरफ का,मज़ा लेता सच्चा
भले ही बड़ा कोई बन जाए कितना ,
         हरेक में छुपा है एक छोटा सा बच्चा
वो बच्चा बड़ा जो हठी जिद्दी होता ,
         जिसे पाने को रहती,चन्दा की चाहत
अगर जिद नहीं उसकी होती है पूरी ,
        उठा लेता ,घर सर पे,करता मुसीबत
उसे अक्स चंदा का पानी में दिखला ,
         नहीं बहला सकते हो,दे  सकते गच्चा
भले ही बड़ा कोई बन जाए कितना ,
         हरेक में छुपा है,एक  छोटा  सा बच्चा
बुढ़ापे में आता वो बच्चा निकल कर,
        वो ही जिद,हठीपन और वो ही मचलना
बूढ़ों में ,बच्चों में ,अंतर न रहता ,
        वही खानापीना और डगमग के चलना
बच्चों सी जिद ,रौब लेकिन बड़ों सा ,
        है लाचार तन ,प्यार दिल में है  सच्चा
बड़ा कोई कितना ही बन जाए लेकिन ,
        हरेक में छुपा है एक छोटा सा बच्चा

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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