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शनिवार, 5 दिसंबर 2020

हरिद्वार -एक प्रतिक्रिया

गंगा के तीर बसा ,इसीलिये तीरथ है ,
तीरथ में आकर के पैसे तर जाते है
भगत लोग आते है ,भाव लिए भक्ति का ,
इसीलिये चीजों के भाव बढे  जाते है
आओ तो दान करो ,जाओ तो दान करो ,
पंडे पुजारी सब ,दान गीत गाते है
नाम बड़ा सच्चा है ,हरद्वार आने पर ,
खर्चे के सभी द्वार ,खुद ही खुल जाते है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
बुढ़ापे की आशिक़ी

एक दिन मैं छत पर धूप खा रहा था
जवानी का बीता जमाना याद आरहा था
'अभी तो मैं जवान हूँ ' ये ख्याल आने लगा
बासी कढ़ी में उबाल आने लगा
जागृत होने लगी मन में तम्मनायें
सोचा चलो ,बुढ़ापे में  इश्क़ लड़ाया जाये
बस निकालने मन की ये ही भड़ास
करने लगा किसी हमउम्र नाजनी की तलाश
घूमने जाने लगा पार्क में
मॉर्निग वाक में
रहता था इस ताक में
कि कोई साठ  पारी
सुन्दर ,सुमुखी अकेली नारी
मिल जाये तो भाग्य जग जाए
अंधे के हाथ बटेर लग जाए
किस्मत से एक हसीना का हुआ दीदार
आँखें हुई चार
उमर उसकी भी साठ के आसपास थी
शायद उसे भी कोई मुझ जैसे की तलाश थी
नज़रें लड़ी
बात आगे बड़ी
हमारी आपस में लगी  पटने
पार्क में ,गपशप में समय लगा कटने
ये बुढ़ापे का रोमांस
भी होता है बाय चांस
हम दोनों बासी उमर के लोग ,
ताज़ी मोहब्बत का मज़ा लूटने लगे
मन में मिलन के लड्डू फूटने लगे
वो भी पुरानी खायी  खेली थी
पर उसकी बातें बड़ी अलबेली थी
कभी कभी फरमाइशें करती थी  ऊलजलूल
एक दिन बोली जैसे कली बनती है फूल
वैसी ही कोई चीज खिलाओ  तो जाने
हम भी खिलाड़ी थे पुराने
हमने उसके आगे पॉपकॉर्न का पैकेट
कर दिया पेश
देख कर हमारी बुद्धि और ज्ञान
वो  हम पर हो गयी कुरबान
अब आपको क्यों बताएं हमें क्या मिला इनाम
एक दिन उसका मन चंचल
खाने को हुआ विकल
कोई ऐसी चीज जो फूल भी हो और फल
हमने अपना दिमाग भिड़ाया
और  उसको गुलाब जामुन खिलाया
और उसका ढेर सा प्यार पाया
उसकी फरमाइशें बड़ी निराली होती थी
पहेली सी उलझी ,पर प्यारी होती थी  
जैसे एक दिन बोली ,ऐसा कुछ खाया जाये
जो मन को भाये पर शुगर ना बढ़ाये
इतनी लिज्जत हो की तबियत हो जाए तर
और पेट भी जाए भर
उसकी इस फरमाइश पर
शुरू में तो हम हुए भौंचक्के
फिर उसे चाट के ठेले पर ले गए ,
खिलाने गोलगप्पे
वो एक एक गोलगप्पा मुंह में धरती थी
सी सी करती थी  
चटखारे भरती थी
तबियत हो गयी तर
पेट भी गया भर
और बढ़ी भी नहीं शुगर
 जब हम पूर्ण करते थे उसकी फरमाइशें
पूर्ण होती थी हमारी भी ख्वाइशें
पर उसकी पिछले हफ्ते वाली ,
फरमाइश थी अजब
उसे जलेबी खाने की लगी थी तलब
जलेबी ,उसे लगती बड़ी लजीज़ थी
पर उसे डाइबिटीज थी
जलेबी और वो भी शुगर फ्री
हमारे आगे मुश्किल थी बड़ी
पर हमारी अनुभवी आशिक़ी ने जोर मारा
जरा सोचा और विचारा
और छोटी छोटी जलेबी लेकर आये
आधी जलेबी को अपने होटों पर लगाए
और उसकी चाशनी चूस डाली
और रसहीन पोर्शन वाली जलेबी उसके मुंह में डाली
और उसका आधा रसीला भाग हम चूसने लगे
ऐसा स्वाद आया की हम रह गए ठगे के ठगे
एक तो जलेबी का रस और उसपर
उनके गुलाबी होठों के चुंबन का स्वाद
जिंदगी भर रहेगा याद
और वो भी मुस्करा रही थी
बिना शुगर की जलेबी का मज़ा उठा रही थी
हमारी नजदीकियां बढ़ती ही जारही थी
तो दोस्तों,हम आजकल इसतरह ,
बुढ़ापे के इश्क़ का मज़ा उठा रहे है
जब भी मौका मिलता है ,जलेबियाँ खा रहे है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2020

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