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मंगलवार, 3 नवंबर 2020

घर की मुर्गी -दाल बराबर

मैं तो  तुम पर प्यार लुटाऊँ ,रखूँ तुम्हारा ख्याल बराबर
तुमने मुझको समझ रखा है ,घर  की मुर्गी दाल बराबर  

मैं तो करूं  तुम्हारी पूजा ,तुम्हे मान कर ,पति परमेश्वर
और तुम हरदम ,रूद्र रूप में ,रहो दिखाते ,अपने तेवर
मैं लक्ष्मी सी चरण दबाऊं ,तुम खर्राटे ,भर सो जाते
मुझे समझ ,चरणों की दासी , कठपुतली सी मुझे नचाते
करवा चौथ करूं मैं निर्जल ,और तुम खाते ,माल बराबर
तुमने मुझको समझ रखा है ,घर की मुर्गी ,दाल बराबर

चाय पत्तियों सी मैं उबलू ,मुझे छान तुम स्वाद उठाओ
मैं अदरक सी कुटूं और तुम ,अपनी 'इम्युनिटी 'बढ़ाओ
फल का गूदा,खुद खाकरके,फेंको मुझे समझ कर छिलका
प्यार के बदले ,मिले उपेक्षा ,बुरा हाल होता है दिल का
नहीं सहन अब मुझसे होता ,अपना ये अपमान सरासर
तुमने मुझको समझ रखा है ,घर की मुर्गी ,दाल बराबर

दाल बराबर नहीं सजन मैं ,रहना चाहूँ ,बराबर दिल के
इसीलिये 'इन्स्टंट कॉफी 'सी रहूँ तुम्हारे संग हिल मिल के
मैं बघार की हींग बनू ,चुटकी भर में ,ले आऊं लिज्जत
'स्टार्टर'से'स्वीटडिशों 'तक,मिले 'डिनर 'में ,मुझको इज्जत
चटखारे लेकर हम खाएं ,और रहें खुशहाल  बराबर
तुमने मुझको ,समझ रखा है ,घर की मुर्गी ,दाल बराबर

मदन मोहन बाहेती 'घोटू ' 

सोमवार, 2 नवंबर 2020

मैं कौन हूँ ?

मैं दुबली पतली और छरहरी हूँ
क्षीणकाय जैसे कनक की छड़ी हूँ
बाहर से होती नरम बड़ी हूँ
लेकिन अंदर से मैं बहुत कड़ी हूँ
मेरा दिल भले ही काला है
पर हर कोई मुझे चाहने वाला है
क्योंकि जब मैं चलती हूँ अपनी चाल
मेरा हर चाहनेवाला भावना में बहता है
कोरा कागज भी कोरा नहीं रहता है
आप जैसा भी चाहें ,
मुझको नचायें
क्योंकि मेरी लगाम आपके हाथ है
जीवन के हर पल में ,मेरा आपका साथ है
गिनती में ,हिसाब में
लाला की किताब में
दरजी की दूकान पर
मिस्त्री के कान पर
बनिये  के खातों में
मुनीमजी के हाथों में
कविता की पंक्तियों में
चित्रकार की कृतियों में
सब जगह है मेरा वास
सबके लिए हूँ मैं ख़ास
सबकी चहेती  हूँ
बार बार मरती हूँ ,बार बार जीती हूँ
जब मैं गुस्से में चलती हूँ ,लोग डरते है
उनके काले कारनामे उभरते है
क्योंकि मैं जोश भरी हुंकार हूँ
बिना धार की तलवार हूँ
ताजा समाचार हूँ
कल का अखबार हूँ
मैं विचारों का स्वरुप हूँ
योजनाओं का प्रारूप हूँ
चित्रकार का चित्र हूँ
कलाकारों की मित्र हूँ
हर विषय का ज्ञान हूँ
गणित हूँ ,वज्ञान हूँ
हिंदी ,अंग्रेजी हो या गुजराती
मुझे हर भाषा है लिखनी आती
कवि के हाथों में कविता बन जाती हूँ
लेखक के हाथों से कहानी सुनाती हूँ
प्रेमियों के दिल के भाव खोलती हूँ
प्रेमपत्र के हर शब्द में बोलती हूँ
ये बड़ी बड़ी इमारतें और बाँध
मेरी कल्पनाओं के है सब उत्पाद
ये रोज रोज बदलते फैशन
सब मेरे ही है क्रिएशन
मैं थोड़ी अंतर्मुखी हूँ
कोई दिल तोड़ देता तो होती दुखी हूँ
पर ये बोझ नहीं रखती दिल पर
बस थोड़ी सी छिलकर
फिर से नया जीवन पाती हूँ
हंसती हूँ,मुस्कराती हूँ
आपके काम आती हूँ
हालांकि मेरी काली जुबान है
फिर भी लोग मुझ पर मेहरबान है
क्योंकि मैं उनके लिए मरती हूँ तिल तिल
दूर करती हूँ उनकी हर मुश्किल
आप खुश होंगे मुझसे मिल
जी हाँ ,मैं हूँ आपकी पेन्सिल

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '





 करवा चौथ पर विशेष

मेरी जीवन गाथा

एक मैं और मेरी तारा
मिलजुल कर करें गुजारा
हँसते हँसते मस्ती में ,
कट जाता समय हमारा

हम दो है नहीं अकेले
जीवन में नहीं झमेले
मैं टी वी रहूँ देखता ,
वो मोबाईल पर खेले

वो चाय पकोड़े बनाये
हम दोनों मिलकर खायें
आपस में गप्पें मारें ,
और अपना वक़्त बितायें

नित उठना,खाना,पीना
यूं ही खुश रह कर जीना
संतोषी सदा सुखी है ,
हमको है कोई कमी ना

हम ज्यादा घूम न सकते
अब जल्दी ही हम थकते
कमजोरी से आक्रान्तिक ,
है जिस्म हमारे ,पकते

मन में है नेक इरादे
हम बंदे सीधे सादे
देती है साथ हमारा ,
कुछ भूली बिसरी यादें

यूं गुजरी उमर हमारी
हम खटे उमर भर सारी
बच्चों को 'सेटल' करके ,
पूरी की जिम्मेदारी

जीवन भर काम किया है
प्रभु ने अंजाम दिया  है
अब जाकर चैन मिला है ,
हमको आराम दिया है

है ख़ुश हम हर मौसम में
सब देख लिया जीवन में
हम में न लड़ाई होती,
बस प्यार भरा है मन में
 
बच्चे इज्जत है देते
त्योहारों पर मिल लेते
छूकर के चरण  हमारे,
हमसे आशीषें  लेते

खुश कभी ,कभी हम चिंतित
डर  नहीं हृदय  में  किंचित  
एक दूजे का है सहारा ,
एक दूजे पर अवलम्बित

मन कभी भटकता रहता
मोह में है अटकता रहता
व्यवहार कभी लोगों का ,
है हमें खटकता रहता

मन सोच सोच घबराये
आँखों पे अँधेरा  छाये
हम में से कौन न जाने ,
किस रोज बिदा हो जाये

पर ऐसे दिन ना आयें
हम यही हृदय से चाहें
जब तक भी रहें हम जिन्दा ,
वो करवा चौथ मनाये

जो जब होगा ,देखेंगे
चिंता न फटकने देंगे
कैसी भी विपदा आये ,
हम घुटने ना टेकेंगे

ये मन तो है बंजारा
भटके है मारा मारा
हम बजा रहे इकतारा
एक मैं और मेरी तारा  

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

रविवार, 1 नवंबर 2020

मैं कौन हूँ ?

मैं दुबली पतली और छरहरी हूँ
क्षीणकाय जैसे कनक की छड़ी हूँ
बाहर से होती नरम बड़ी हूँ
लेकिन अंदर से मैं बहुत कड़ी हूँ
मेरा दिल भले ही काला है
पर हर कोई मुझे चाहने वाला है
क्योंकि जब मैं चलती हूँ अपनी चाल
मेरा हर चाहनेवाला भावना में बहता है
कोरा कागज भी कोरा नहीं रहता है
आप जैसा भी चाहें ,
मुझको नचायें
क्योंकि मेरी लगाम आपके हाथ है
जीवन के हर पल में ,मेरा आपका साथ है
गिनती में ,हिसाब में
लाला की किताब में
दरजी की दूकान पर
मिस्त्री के कान पर
बनिये  के खातों में
मुनीमजी के हाथों में
कविता की पंक्तियों में
चित्रकार की कृतियों में
सब जगह है मेरा वास
सबके लिए हूँ मैं ख़ास
सबकी चहेती  हूँ
बार बार मरती हूँ ,बार बार जीती हूँ
जब मैं गुस्से में चलती हूँ ,लोग डरते है
उनके काले कारनामे उभरते है
क्योंकि मैं जोश भरी हुंकार हूँ
बिना धार की तलवार हूँ
ताजा समाचार हूँ
कल का अखबार हूँ
मैं विचारों का स्वरुप हूँ
योजनाओं का प्रारूप हूँ
चित्रकार का चित्र हूँ
कलाकारों की मित्र हूँ
हर विषय का ज्ञान हूँ
गणित हूँ ,वज्ञान हूँ
हिंदी ,अंग्रेजी हो या गुजराती
मुझे हर भाषा है लिखनी आती
कवि के हाथों में कविता बन जाती हूँ
लेखक के हाथों से कहानी सुनाती हूँ
प्रेमियों के दिल के भाव खोलती हूँ
प्रेमपत्र के हर शब्द में बोलती हूँ
ये बड़ी बड़ी इमारतें और बाँध
मेरी कल्पनाओं के है सब उत्पाद
ये रोज रोज बदलते फैशन
सब मेरे ही है क्रिएशन
मैं थोड़ी अंतर्मुखी हूँ
कोई दिल तोड़ देता तो होती दुखी हूँ
पर ये बोझ नहीं रखती दिल पर
बस थोड़ी सी छिलकर
फिर से नया जीवन पाती हूँ
हंसती हूँ,मुस्कराती हूँ
आपके काम आती हूँ
हालांकि मेरी काली जुबान है
फिर भी लोग मुझ पर मेहरबान है
क्योंकि मैं उनके लिए मरती हूँ तिल तिल
दूर करती हूँ   मुश्किल
आप खुश  है मुझसे मिल
जी हाँ ,मैं हूँ आपकी पेन्सिल

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '




शनिवार, 31 अक्टूबर 2020

मेरी जीवन यात्रा

एक मैं और मेरी तारा
मिलजुल कर करें गुजारा
हँसते हँसते मस्ती में ,
कट जाता समय हमारा

हम दो है नहीं अकेले
जीवन में नहीं झमेले
मैं टी वी रहूँ देखता ,
वो मोबाईल पर खेले

वो चाय पकोड़े बनाये
हम दोनों मिलकर खायें
आपस में गप्पें मारें ,
और अपना वक़्त बितायें

हम ज्यादा घूम न सकते
अब जल्दी ही हम थकते
कमजोरी से आक्रान्तिक ,
है जिस्म हमारे ,पकते

मन में है नेक इरादे
हम बंदे सीधे सादे
देती है साथ हमारा ,
कुछ भूली बिसरी यादें

यूं गुजरी उमर हमारी
हम खटे उमर भर सारी
बच्चों को सेटल करके ,
पूरी की जिम्मेदारी

जीवन भर काम किया है
प्रभु ने अंजाम दिया  है
अब जाकर चैन मिला है ,
हमको आराम दिया है

बच्चे इज्जत है देते
त्योहारों पर मिल लेते
छूकर के चरण  हमारे,
हमसे आशीषें  लेते

खुश कभी ,कभी हम चिंतित
दर नहीं हृदय  में  किंचित  
एक दूजे का है सहारा ,
एक दूजे पर अवलम्बित

मन कभी भटकता रहता
मोह में है अटकता रहता
व्यवहार कभी लोगों का ,
है हमें खटकता रहता

मन सोच सोच घबराये
आँखों पे अँधेरा  छाये
हम में से कौन न जाने ,
किस रोज बीड़ा हो जाये

जो जब होगा ,देखेंगे
चिंता न फटकने देंगे
कैसी भी विपदा आये ,
हम घुटने ना टेकेंगे

ये मन तो है बंजारा
भटके है मारा मारा
हम बजा रहे इकतारा
एक मैं और मेरी तारा  

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

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