तुमने अचार बना डाला
वैभव के सपने देखे थे ,मैंने जीवन के शैशव में
अभिलाषाओं का बहुत शोर ,करता था मैं किशोर वय में
यौवन के वन में आ जाना ,वह तो थी मृगतृष्णा कोरी
लेकिन अब हूँ मैं समझ सका ,जीवन भाषा थोड़ी थोड़ी
मे बनने वाला था कलाकार ,तुमने बेकार बना डाला
केरी ना पक कर आम बनी ,तुमने अचार बना डाला
मेरी सारी आशाओं पर ,उस रोज तुषारापात हुआ
जिस दिनसे कि इस जीवन में ,मेरा तुम्हारा साथ हुआ
मैंने सोचा था पढ़ी लिखी,,तुम मेरा काव्य सराहोगी
तुम स्वयं धन्य हो जाओगी ,जो मुझसे कवि पति पाओगी
थी मधुर यामिनी की बेला ,मैं था तुम पर दीवाना सा
तुम्हारी रूप प्रशंसा में ,मैंने गाया कुछ गाना सा
मैं भाव विभोर हो गया था ,सोचा था तुम शरमाओगी
या तो पलकें झुक जाएगी या बाहों में आ जाओगी
पर पलकें झुकी न शरमाई ,तुम झल्ला बोली मत बोर करो
बाहर मेहमान जागते है ,अब चुप भी रहो न शोर करो
फिर यह सुन अभिलाषाओं ने था,बाँध सब्र का फांद दिया
जब तुम बोली हे राम मुझे ,किस कवि के पल्ले बाँध दिया
फिर दिया लेक्चर लम्बा सा ,तुमने घर जिम्मेदारी का
मुझको अहसास दिलाया था ,तुमने मेरी बेकारी का
उस मधुर यामिनी में तुमने ,फीका अभिसार बना डाला
केरी ना पक कर आम बनी ,तुमने अचार बना डाला
फिर मुझे प्यार से सहला कर ,कुछ ऐसी मीठी बात करी
रह गयी छुपी दिल ही दिल में ,मेरी कविताई डरी डरी
मैं रूपजाल में बंधा हुआ ,जो तुम बोली सब सच समझा
फिर वही हुआ जो होना था ,मैं नमक तेल में जा उलझा
तुम्हारा कहना मान लिया ,हो गया किसी का नौकर मैं
बेचारी काव्य पौध सूखी ,जो पछताता हूँ बो कर मैं
बाहर कोई का नौकर पर ,घर में नौकर तुम्हारा था
तुम्हारी रूप अदाओं ने ,एक कलाकार को मारा था
इससे अच्छा यदि उसी रात ,जो प्यार मुझे तुम ना देती
मीठी बातों के बदले में,फटकार मुझे जो तुम देती
तो हिंदी जग में आज नया ,एक तुलसीदास नज़र आता
पत्नी ताड़ित यदि बन जाता ,पत्नी पीड़ित ना कहलाता
कितने ही काव्य रचे होते ,मैं कालिदास बना होता
मुरझाती यदि ना काव्य पौध ,तो अब वह वृक्ष घना होता
पर बकरी बन ,उस पौधे को ,तुमने आहार बना डाला
केरी ना पक कर आम बनी ,तुमने अचार बना डाला
मैं कई बार पछताता हूँ ,यदि तुमसे प्यार नहीं होता
मैं कुछ ना कुछ बन ही जाता ,मेरा ये हाल नहीं होता
लेकिन मुझसे भी ज्यादा तो ,अब कलाकार हो अच्छी तुम
हर साल प्रकाशित कर देती ,कोई बच्चा या बच्ची तुम
ना जाने क्यों मेरे मन को ,रह रह यह बात कचोट रही
तुम सौत समझती कविता को ,क्यों गला कला का घोट रही
मैं जब भी कुछ लिखने लगता ,सब काम याद क्यों आते है
अब तुम्ही बताओ उसी समय ,बच्चे क्यों शोर मचाते है
मैं भली तरह से समझ गया ,यह तुम्ही उन्हें हो सिखलाती
क्या लिखूं रात में खाख , तुम्हे ,लाइट में नींद नहीं आती
घंटों तक बोर नहीं करती ,सखियों की बातचीत तुमको
तो बतलाओ क्यों चुभते है ,मेरे ये मधुर गीत तुमको
मैं अलंकार की बात करू ,तुम आ जाती हो गहनों पर
मेरे कविता के टॉपिक को ,ले आती हो निज बहनो पर
कहती हो रचना को चरना ,कवि को कपिकार बना डाला
केरी ना पक कर आम बनी,तुमने अचार बना डाला
मैं बात काव्य रस की करता ,जाने क्यों मुंह बिचकाती हो
जब गन्ने और आम का रस ,दो दो गिलास पी जाती हो
मैं जब भी समझाने लगता ,कविता का भाव कभी तुमको
आ जाता याद बाजार भाव ,लगता है महंगा घी तुमको
जब मेरी काव्य साधना की ,दो बात नहीं सुन सकती हो
उस मुई सिनेमे वाली के ,घंटों तक चर्चे करती हो
क्यों गज भर दूर ग़ज़ल से तुम ,क्यों है रुबाई से रुस्वाई
क्यों डरती हो तुम शेरों से ,क्यों नज़म तुम्हे ना जम पाई
क्यों है नफरत क्या इन सबसे ,है पूर्व जन्म का बैर तुम्हे
या मैं ही सीधसादा हूँ ,ना मिला कोई दो सेर तुम्हे
मत समझो ये सीधा प्राणी ,केवल घर का वासिन्दा है
मैं भले गृहस्थी में उलझा ,मेरा कवि अब भी ज़िंदा है
पर जब तुम घर में रहती हो तो कहाँ काव्य लिख सकता हूँ
यदि चार माह पीहर रहलो तो महाकाव्य लिख सकता हूँ
हे राम फंसा किस झंझट में ,मेरे सर भार बना डाला
केरी ना पक कर आम बनी ,तुमने अचार बना डाला
मदन मोहन बाहेती 'घोटू '