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शुक्रवार, 28 जुलाई 2017

क्या ये उमर का असर है 

मुझे याद आते है वो दिन 
जब कभी कभी तुम 
होटल में खाने की करती थी फरमाइश 
और मेरे बजट में ,नहीं होती थी गुंजाईश 
तो मैं कुछ न कुछ बहाना बना 
कर देता था मना 
क्योंकि उस एक दिन की आउटिंग में ,
मेरा महीने भर का बजट हो जाता बर्बाद 
और हम लौकी की सब्जी में ही ,
ढूँढा करते थे ,मटर पनीर का स्वाद 
और आज जब मैं इतना सम्पन्न हूँ 
कि तुम्हे हर रोज ,
पांच सितारा होटल में करा सकता हूँ भोज 
जब तुम्हे बाहर खाने को करता हूँ ऑफर 
तो तुम देख कर अपना मोटा होता हुआ फिगर 
या फिर डाइबिटीज से डर ,
बाहर खाने के लिए  मना कर देती हो 
और खाने में ,लौकी की सब्जी ,
बना कर देती हो 
वो ही लौकी तब भी थी ,
और वो ही लौकी अब है 
पर उनको खाने की वजहें अलग है 
दोनों में कितना अंतर् है 
क्या ये उमर का असर है?
मुझे याद आते है वो दिन ,
जब मैं देख कर कोई औरत हसीन 
अगर गलती से उसकी खूबसूरती की ,
तारीफ़ कर देता था जो एक भी दफा 
तुम जल भुन  कर हो जाती थी खफा
बुरी तरह रूठ जाया करती थी 
दो दिन तक बात नहीं करती थी 
और आज मैं अगर किसी औरत की 
खूबसूरती की तारीफ़ देता हूँ  कर
तुम कह देती हो मुस्करा कर 
जाओ,चले जाओ उसीके पास 
कोई भी तुम्हे नहीं डालेगी घास 
घूम फिर कर फिर मेरे पास ही आना होगा 
मैं जैसी भी हूँ,उसी से काम चलाना होगा 
तुम भी वो ही हो ,मैं भी वही हूँ,
पर नज़रिये में आ गया कितना अंतर है 
क्या ये उमर का असर है?
मुझे याद आते है वो दिन ,
जब मैं कभी तुमसे प्यार की मनुहार करता था ,
तुम नज़रें झुका ,ना ना कहती थी 
और फिर चुपचाप,यमुना की तरह ,
मेरी गंगा में मिल कर ,साथ साथ बहती थी 
और आज ,जब मै कभी कभी ,
करता हूँ प्यार की पहल 
तुम लेती हो करवट बदल 
तुम्हारे व्यवहार में आगयी इतनी प्रतिकूलता है 
चुंबन लेने में भी ,तुम्हारा सांस फूलता है 
आज भी मेरे प्यार के आव्हान पर ,
तुम्हारा उत्तर ना ना होता है 
कभी कमर दर्द तो कभी सर दर्द का,
बहाना होता है 
तुम्हारी तबकी ना ना में ,
और अब की ना ना में ,आ गया कितना अंतर् है 
क्या ये उमर का असर है?

मदन मोहन बाहेती'घोटू'  

गुरुवार, 20 जुलाई 2017

सबकी नियति
 
 ट्रे में सजे धजे सब अंडे,कोई कब तक मुस्काएगा 
सबकी नियति एक ,एक दिन ,हर अंडा तोडा जाएगा 
कोई चोंटें खा खाकर के ,यूं ही  चम्मच की टूटेगा 
मिला दूध में ,पी कर कोई ,ताक़त पा कर ,सुख लूटेगा 
कोई गरम गरम पानी में ,डुबो डुबो कर जाय उबाला 
और तोड़ फिर काटा जाता ,फिर खाया जाता ,बेचारा 
कोई तोड़ कर फेंटा जाता ,गरम तवे पर  जाय बिछाया 
और प्यारा सा आमलेट बन ,ब्रेकफास्ट में जाए खाया 
कुछ किस्मतवाले अंडे है ,जो तोड़े और फेंटे जाते 
मैदे में मिल,ओवन में पक,रूप केक का है वो पाते 
उन्हें क्रीम से सजा धजा कर ,सुन्दर रूप दिया जाता है 
मगर किसी के जन्मदिवस पर ,उसको भी काटा जाता है 
टुकड़े टुकड़े खाया जाता ,मुंह पर कभी मल दिया जाता  
किसी सुन्दरी के गालों का ,पा स्पर्श ,बहुत इतराता 
सबकी अपनी अपनी किस्मत ,मगर टूटना सबको पड़ता 
कोई ओवन,कोई तवे पर ,और पानी में कोई उबलता 
चाहे अंडा हो या मानव ,तपते,पकते रहते हर क्षण 
सबकी नियति एक है मगर,क्षण भंगुर सबका है जीवन 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
रिमझिम और बाढ़ 

रिमझिम बरसती बूँदें,लगती है बड़ी सुहानी 
लेकिन जब उग्र हो जाता है है ,वो ही पानी 
और उसके सर पर ,जब खून चढ़ जाता है 
तो वो मटमैला होकर ,बाढ़ का कहर ढाता है 
ऐसी ही रिमझिम जैसा होता है पत्नी का प्यार 
और गुस्सा,सहनशक्ति का बाँध तोड़ती ,बाढ़ 

घोटू 

मंगलवार, 18 जुलाई 2017

 ये हाथ तुम्हारे 

ये हाथ तुम्हारे सुन्दर है ,कोमल है नरम मुलायम है 
फिर भी दिनभर सब काम करे,इन हाथों में इतना दम है 
इन हाथों का स्पर्श मात्र ,मुझको रोमांचित कर देता 
हाथो में हाथ लिए चलना ,जीवन में खुशियां भर देता 
ये हाथ मुझे जब सहलाते ,मुझको सिहरन सी लगती है 
ये हाथ बहुत प्यारे लगते ,जब इन पर मेंहदी सजती  है 
इन हाथों की रेखाओं में, है छुपी हुई  जीवन गाथा 
इन हाथों का जब साथ मिले ,सुख से जीवनपथ कट जाता 
इन हाथों की उंगली में ही ,जब एक अंगूठी पहनाते 
तो जीवन भर के बंधन में ,दो अनजाने भी बंध जाते 
इन हाथों में पहने कंगन ,जब खनका करते रातों में 
एक चिंगारी सी लग जाती,मन के सोये जज्बातों में 
इन हाथों की एक उंगली ही ,जब करती एक इशारा है 
तो बेबस हो नाचा करता ,हर एक पति बेचारा  है
इन हाथों द्वारा बना हुआ ,स्वादिष्ट बहुत लगता भोजन 
तारीफ़ करू,इनको चूमूँ ,ऐसा करता है मेरा मन 
ये हाथ सहारा देते है ,मुश्किल बिगड़े  हालातों में 
मैंने जीवन का सौंप दिया ,सब भार बस इन्ही हाथों में 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
खैर मना बददुआ नहीं दी 

तूने मुझे दुखी करने में ,छोड़ी कोई कसर नहीं थी 
मैने तुझको दुआ नहीं दी,खैर मना बददुआ नहीं दी 

ग्रहण काल में उगता सूरज ,पड़ा ग्रहों पर मेरे भारी 
तहस नहस घरबार हो गया ,ऐसी भड़की थी चिंगारी 
कोई को कुछ नहीं समझती ,इतना तुझमे चढ़ा अहम था 
सबसे समझदार तू जग में ,तेरे मन में  यही बहम था 
तेरी एक एक हरकत में ,नज़र छिछोरापन आता था 
पराकाष्ठा निचलेपन की ,काम तेरा हर दिखलाता था 
तेरे जैसी आत्मकेन्दित , देखी  मैंने  कहीं  नहीं थी 
मैंने तुझको दुआ नहीं दी,खैर मना बददुआ नहीं दी
 
मैंने  सोचा साथ समय के ,सोच तुम्हारी सुधर जायेगी 
आज नहीं तो शायद कल तक तुममे थोड़ी अकल आएगी 
इतनी कटुता और कुटिलता ,तेरे मन में भरी हुई है 
रिश्ते नाते अपनेपन की ,सभी भावना मरी हुई है 
चेहरे पर मुस्कान ओढ़ कर बातें करती ओछी ओछी 
हम भोले थे समझ न पाये ,तेरी चालें ,समझी ,सोची 
पल पल पीड़ा और वेदना ,आंसू पिये और सही थी 
मैंने तुझको दुआ नहीं दी ,खैर मना बददुआ नहीं दी 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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