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शनिवार, 19 जुलाई 2014

संवाद -बादल से

          संवाद -बादल से

मुझसे कल पूछा बादल ने ,बताओ मैं कहाँ बरसूँ
              चाहते सब है बरसूँ मैं ,पर छतरी तान लेते है
सिर्फ धरती है जो मुझको,समा लेती  सीने में ,
             और बाकी सब बहा देते ,पराया मान लेते है               
बहुत जी चाहता मेरा ,मिलूं आकर के धरती से,
            हवाएँ आवारा  लेकिन मुझे अक्सर उडा लेती ,
सरोवर पीते मेरा जल ,मगर नदियां बहा देती ,
             समंदर भी उडा  देते,नहीं अहसान  लेते  है

घोटू

शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

खाते पीते लोग

          खाते पीते लोग

भूख अपनी मिटाने में,
रहे हम व्यस्त  खाने में
बताएं आपको अब क्या,कि हम क्या क्या नहीं खाये
भाव हमने  बहुत खाये
घाव हमने  बहुत  खाये
वक़्त की मार जब खाई ,तब कहीं जा संभल पाये
रिश्वतें भी बहुत खायी
कमीशन भी बहुत खाया ,
बड़े ही खानेपीने वाले,ऑफिसर थे कहलाये 
गालियां खाई लोगों से,
और खाये बहुत  धोखे ,
ठोकरें खा के दर दर की ,मुकाम पे हम पहुँच पाये
मन नहीं लगता था घर में
पड़े उल्फत के चक्कर में ,
पटाने उनको,उनके घर के चक्कर भी बहुत खाये
मिली बस दाल रोटी घर
दावतें खाई,जा होटल,
मिठाई खूब खाई ,चटपटी हम ,चाट चटखाये
डाट साहब की दफ्तर में
और  घरवाली की घर में
खूब खाई ,तभी तो हम,ढीट है इतने बन  पाये
बुढ़ापे में है ये आलम
दवाई खा रहे है हम
हो गया है हमें अरसा ,मिठाई कोई भी खाये
कमाया कम,अधिक खाया
मगर वो पच नहीं पाया
माल चोरी का मोरी में ,बहा  कैसे ,क्या बतलायें
इधर भी जा ,उधर भी जा
सारी दुनिया का  चक्कर खा
गये थे घर से हम बुद्धू ,लौट बुद्धू ही घर आये

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
 
 

पीले से प्रीत

       पीले से प्रीत

आम,संतरा और मौसम्बी ,केला और पपीता सब ही,
     अक्सर स्वाद भरा हर एक  फल ,ये देखा है  पीला होता
पीले सब नमकीन ,पकोड़े,पीली बूंदी,बेसन लड्डू,
     चाहे  जलेबी ,राजभोग हो , कितना स्वाद  रसीला  होता
 पीले होते  स्वर्णाभूषण ,और पीताम्बरधारी भगवन,
      उगता ,ढलता सूरज पीला, चन्दा है चमकीला   होता
इसीलिये जब शादी होती ,कहते पीले हाथ कर दिए ,
      हल्दी चढ़ने से दुल्हन का ,कितना रूप  खिला है होता

घोटू 

आम या ख़ास

             आम या ख़ास

दशहरी हो या फिर लंगड़ा ,हो चौंसा या कि अल्फांसो,
          आम ,कोई  न आम होता  ,हमेशा  ख़ास  होता   है
माशुका की तरह उनका ,स्वाद जब मुंह में लग जाता ,
          लबों पर उसकी लज्जत का,गजब अहसास होता है
ज़रा सा मुंह में लेकर के ,पियो जब घूँट तुम रस की,
            हलक में जा रहा अमृत ,यही आभास   होता है  
गुट्ठिया चूस कर देखो , रसीली,रसभरी होती ,  ,
             हरेक रेशे में रस ही रस , बड़ा  मिठास होता है
घोटू

खून का खेल

            खून का खेल
एक तो तंग हमको कर कर रखा इन मच्छरों ने है ,
               रात भर तुनतुनाते और हमारा खून पी जाते
दूसरा तंग हमको कर रखा इन डाक्टरों ने है,
             बिमारी कोई हो ना हो,   खून का टेस्ट  करवाते
तीसरा घर की घरवाली ,रोज फरमाइशें कर कर,
               अदा से प्यार से ,मनुहार से सब खून पीती है 
बॉस दफ्तर में कस कर,काम करवाते है खूं पीते,
               नहीं केवल हमारी ये ,सभी की आपबीती है
खौलता खून है सबका ,मगर कुछ कर नहीं पाते ,
               हमारा खून पीती ,मुश्किलें ,जो रोज आती है
और उस पे ये मंहगाई ,हमारे खून की दुश्मन,
            मुंह सुरसा  सा फैलाती ,दिनोदिन बढ़ती जाती है
रोज हम लेते है लोहा,जमाने भर की दिक्कत से ,
            मात्रा 'आयरन 'की खून में ,बिलकुल न बढ़  पाती
कभी 'ऐ 'है,कभी 'ओ'है ,कभी 'बी पोसिटिव'कहते,
           खून की कितनी भाषाएँ ,समझ में ही नहीं आती 
हो गए इस तरह से 'प्रेक्टिकल'लोग दुनिया के ,
           आजकल खून का रिश्ता ,बड़ी मुश्किल से निभता है
गए दिन खून की सौगंध खाने वाले वीरों के ,
            आजकल खून तो एक 'कमोडिटी'है,खूब बिकता है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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