एक सन्देश-

यह ब्लॉग समर्पित है साहित्य की अनुपम विधा "पद्य" को |
पद्य रस की रचनाओ का इस ब्लॉग में स्वागत है | साथ ही इस ब्लॉग में दुसरे रचनाकारों के ब्लॉग से भी रचनाएँ उनकी अनुमति से लेकर यहाँ प्रकाशित की जाएँगी |

सदस्यता को इच्छुक मित्र यहाँ संपर्क करें या फिर इस ब्लॉग में प्रकाशित करवाने हेतु मेल करें:-
kavyasansaar@gmail.com
pradip_kumar110@yahoo.com

इस ब्लॉग से जुड़े

रविवार, 18 अगस्त 2013

तुम वैसी की वैसी ही हो

     तुम वैसी की वैसी ही हो

जब तुम सोलह सत्रह की थी,कनक छड़ी सी सुन्दर थी ,
हुई बीस पच्चीस बरस की ,बदन तुम्हारा गदराया
फिर मेरे घर की बगिया में ,फूल खिलाये ,दो प्यारे,
और ममता की देवी बन कर ,सब घर भर को महकाया
रामी गृहस्थी में फिर ऐसी ,बन कर के अम्मा,ताई
तुम्हारे कन्धों पर आई,घर भर की जिम्मेदारी
रखती सबका ख्याल बराबर ,और रहती थी व्यस्त सदा ,
लेकिन पस्त थकीहारी भी,लगती थी मुझको प्यारी
फिर बच्चों की शादी कर के ,सास बनी और इठलाई,
पर मेरे प्रति,प्यार तुम्हारा ,वो का वोही रहा कायम
वानप्रस्थ की उमर हुई पर हम अब भी वैसे ही हैं,
इस वन में मै ,खड़ा वृक्ष सा ,और लता सी लिपटी  तुम
तन पर भले बुढ़ापा छाया ,मन में भरी जवानी है ,
वैसी ही मुस्कान तुम्हारी,वो ही लजाना ,शरमाना
पहले से भी ज्यादा अब तो ,ख्याल मेरा रखती हो तुम,
मै भी  तो होता जाता हूँ,दिन दिन दूना ,दीवाना
वो ही प्यारी ,मीठी बातें,सेवा और समर्पण है ,
वो ही प्यार की सुन्दर मूरत ,अब भी पहले जैसी हो
वो ही प्रीत भरी आँखों में ,और वही दीवानापन ,
पेंसठ की हो या सत्तर की ,तुम वैसी की वैसी  हो

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

गुलाब जामुन

           गुलाब जामुन

गुलाबी गाल है तेरे ,जामुनी होठों की रंगत ,
बड़ी ही चासनी ,मिठास है ,रुखसार तेरे  पर
मुझे गुलाबजामुन सा ,तुम्हारा रूप लगता है ,
मेरे होठो से आ लगजा,इनायत करदे तू मुझपर
घोटू

सीडियां

            सीडियां

बहुत मुश्किल मंजिलों पर पहुंचना ,
चढ़ना पड़ती है हमेशा  सीढियां
सीढियां चढ़ना नहीं आसान है ,
थका देती है बहुत ये सीढियां
मन में जज्बा और रख कर हौसला ,
लगन से चढ़ता है जो भी सीढियां
मुश्किलें आई है पर मंजिल मिली ,
चढी उसने  तरक्की की सीढियां
है गवाह इतिहास भी इस बात का ,
जाती है तर  ,कई उसकी पीढियां

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

मज़ा बचपन का बुढापे में .......

  मज़ा बचपन का बुढापे में .......

बुढापे में भी बचपन को ,बुला हम क्यों नहीं सकते
जरा खुल कर ,हंसी ठट्ठा ,लगा हम क्यों नहीं सकते
बरसती फुहारों में भीग करके ,नाच कर 'घोटू'
मज़ा बारिश के मौसम का ,उठा हम क्यों नहीं सकते
बना कर नाव कागज़ की,सड़क की  बहती नाली में,
तैरा कर ,भाग हम पीछे ,भला जा क्यों नहीं सकते
गरम से तपते मौसम में ,खड़े होकर के ठेले पर ,
बर्फ के गोले ,आइसक्रीम ,हम खा फिर क्यों नहीं सकते
मिला कर हाथ अपने नन्हे ,प्यारे पोते पोती से ,
हम उनके संग ,बच्चे फिर ,बन जाया क्यों नहीं सकते
रखा क्यों ओढ़ कर हमने ,लबादा ये बुजुर्गी का ,
वो बचपन के हसीं लम्हे ,हम लोटा क्यों नहीं सकते
जवानी के मज़े इस उम्र में ,तो लेना है मुश्किल,
मज़े बचपन के दोबारा ,उठा फिर क्यों नहीं सकते

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

ये दिल मांगे मोर

  ये दिल मांगे मोर

लुभाने मोरनी सी महबूबा ,हम मोर बन नाचे ,
मगर वो मोरनी बोली कि ये दिल मोर मांगे है
दिया जब हार सोने का था जिसमे मोर का लोकेट,
लिपट बोली ये दिल अब तो,बहुत कुछ  मोर मांगे है
घोटू

हलचल अन्य ब्लोगों से 1-