वो भी क्या जमाना था
१
जब तुम्हारे लाल लाल होठों की तरह
लगे रहते थे लाल पोस्ट बॉक्स हर जगह
जो लोगों को प्रेम के संदेशे पहुंचाते थे
और तुम्हारी काली काली जुल्फों की तरह ,
कालेचोगे वाले टेलीफोन,घरों की शोभा बढ़ाते थे
अब तुम्हारे होठों की लाली की तरह ,
वो लाल पोस्टबॉक्स ,भी लुप्त हो गए है
और जैसे तुम्हारी जुल्फें भी काली न रही ,
वैसे ही वो काले टेलीफोन ,सुप्त हो गए है
२
वो भी क्या जमाना था
जब आदमी की जेब में अगर
ख़जूर छाप, सौ का एक नोट आजाता था
तो आदमी गर्व से ऐंठ जाता था
और ख़जूर छाप ,डालडा वनस्पति से ,
बने हुए खाने को खाकर ,
आदमी का गला बैठ जाता था
३
वो भी क्या जमाना था ,
जब बिटको या बंदर छाप काले दन्त मंजन से ,
घिस कर लोग दांत सफ़ेद करते थे
और मिट्टी से ,हाथ मैले नहीं होते ,धुला करते थे
४
वो भी क्या जमाना था
जब वास्तव में पैसा चलता था
गोल गोल ताम्बे का एक पैसे का सिक्का ,
लुढ़काने पर ,आगे बढ़ता था
५
वो भी क्या जमाना था
जब न फ्रिज होते थे न वाटरकूलर
पतली सी गरदन मटकाती,मीठी की सुराही ,
पिलाती थी शीतल जल
६
वो भी क्या जमाना था
जब न ऐ,सी,थे न डेजर्ट कूलर होते थे
खस की टट्टी पर पानी छिड़क ,
गर्मी की दोपहरी में घर ठन्डे होते थे
और रात को सब लोग ,
खुली हवा में छत पर सोते थे
मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
१
जब तुम्हारे लाल लाल होठों की तरह
लगे रहते थे लाल पोस्ट बॉक्स हर जगह
जो लोगों को प्रेम के संदेशे पहुंचाते थे
और तुम्हारी काली काली जुल्फों की तरह ,
कालेचोगे वाले टेलीफोन,घरों की शोभा बढ़ाते थे
अब तुम्हारे होठों की लाली की तरह ,
वो लाल पोस्टबॉक्स ,भी लुप्त हो गए है
और जैसे तुम्हारी जुल्फें भी काली न रही ,
वैसे ही वो काले टेलीफोन ,सुप्त हो गए है
२
वो भी क्या जमाना था
जब आदमी की जेब में अगर
ख़जूर छाप, सौ का एक नोट आजाता था
तो आदमी गर्व से ऐंठ जाता था
और ख़जूर छाप ,डालडा वनस्पति से ,
बने हुए खाने को खाकर ,
आदमी का गला बैठ जाता था
३
वो भी क्या जमाना था ,
जब बिटको या बंदर छाप काले दन्त मंजन से ,
घिस कर लोग दांत सफ़ेद करते थे
और मिट्टी से ,हाथ मैले नहीं होते ,धुला करते थे
४
वो भी क्या जमाना था
जब वास्तव में पैसा चलता था
गोल गोल ताम्बे का एक पैसे का सिक्का ,
लुढ़काने पर ,आगे बढ़ता था
५
वो भी क्या जमाना था
जब न फ्रिज होते थे न वाटरकूलर
पतली सी गरदन मटकाती,मीठी की सुराही ,
पिलाती थी शीतल जल
६
वो भी क्या जमाना था
जब न ऐ,सी,थे न डेजर्ट कूलर होते थे
खस की टट्टी पर पानी छिड़क ,
गर्मी की दोपहरी में घर ठन्डे होते थे
और रात को सब लोग ,
खुली हवा में छत पर सोते थे
मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
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