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गुरुवार, 2 जुलाई 2020

कभी तुम भी ----

                           कभी तुम भी छरहरी थी    
स्वर्ग से जैसे उतर कर ,आई हो ,ऐसी परी थी
                           कभी तुम भी छरहरी थी
बड़ा ही कमनीय ,कोमल और कंचन सा बदन था
मदमदाता ,मुस्कराता और महकता मृदुल मन था
बोलती थी मधुर स्वर में ,जैसे कोकिल गा  रही हो
चलती लगता ,सरसों की फूली फ़सल लहरा रही हो
हंसती थी तो फूलों का जैसे  कि  झरना झर रहा हो
गोरा आनन ,चाँद नभ में ,ज्यों किलोलें कर रहा हो
थे कटीले नयन ,हिरणी की तरह ,मन को लुभाते
बादलों की तरह कुंतल ,हवा में थे ,लहलहाते
थी लबालब प्यार से तुम ,भावनाओं से भरी थी
                            कभी तुम भी छरहरी थी
वक़्त के संग,आगया यदि थोड़ा सा बदलाव तुममे
ना रही ,पहले सी चंचल ,आ गया  ठहराव  तुममे
प्यार के आहार से यदि ,गयी कुछ काया विकस है
तोअसर ये है उमर का,बाकी तो सब ,जस का तस है
अभी भी तिरछी नज़र से जब ,देखती ,मन डोलता  है
अभी भी मन का पपीहा ,पीयू  पीयू  बोलता  है  
अभी भी छुवन तुम्हारी ,मन में है सिहरन जगाती
तब कली थी,फूल बनकर,और भी ज्यादा सुहाती
हो मधुर मिष्ठान सी अब ,पहले थोड़ी चरपरी थी
                               कभी तुम भी छरहरी थी

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

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