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शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

मैं तो हूँ अलबेला साबुन

           मैं तो हूँ अलबेला साबुन



मैं तो हूँ अलबेला साबुन
है यही दास्ताँ छोटी सी,
क्षणभंगुर है मेरा जीवन
मेरे तन  में भी सौष्ठव था ,मेरा भी अपना वैभव था
चिकने चमकीले रेपर में ,मैं बंद  कली जैसा नव था
उनने मुझको ले हाथों में ,जब निज कंचन तन सहलाया
इस तरह प्रेम रस डूबा मैं ,मुश्किल से बड़ी ,संभल पाया
मैं ,शरमा शरमा ,सकुचा कर ,हो गया बिचारा झाग झाग
उनके तन आयी  शीतलता ,पर मेरे तनमन  लगी आग
मिलता था प्यार चंद पल का,पर लगती थी वो प्राणप्रिया
बस  उन्हें ताजगी देने को ,मैंने  खुद को  कुरबान  किया
उनके हाथों से फिसल फिसल ,लूटे है मैंने  बहुत  मज़े
हो गई क्षीण अब,जब काया ,अवशेष  मात्र ही सिर्फ बचे
तन मन से की उनकी सेवा ,रह गया आज एक चीपट बन
अब हुआ तिरस्कृत ,पिघल पिघल ,कट जाएगा यूं ही जीवन
परिणिती प्यार की यही मिली ,या वो था  मेरा  पागलपन
मैं तो हूँ अलबेला साबुन

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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