एक कवि हूँ मैं,
सदैव ही उपेक्षित,
सदैव ही अलग सा,
यूँ रहा हूँ मैं ।
पता नहीं पर क्यों,
सब भागते हैं मुझसे,
हृदय की बात बोलूँ,
तिरस्कार है होता ।
कविता ही दुनिया,
कविता ही भावना,
कविता ही सर्वस्व,
मेरा भंडार है यही ।
छंद मेरे कपडे,
अलंकार मेरे गहने,
रचना ही है भोजन,
मेरा संसार यही है ।
भावनाएँ अकसर बहकर,
कविता में है ढलती,
फिर भावनाओं का मेरे,
यूँ बहिष्कार क्यों है ।
क्यों नहीं सब सुनते,
खुले दिल से कविता,
हठ कर कर सबको,
कब तक सुनाता जाऊँ ।
काव्य ही जब धर्म है,
कविता ही तो कहुँगा,
सुनने को तुझे आतुर,
कैसे बनाता जाऊँ ।
क्यों नहीं समझते,
कृपा है माँ शारदे की,
मैं भी बहुत खाश हूँ,
एक कवि हूँ मैं ।
हाँ मैं कवि हूँ,
कविता ही सर्वस्व है,
देखो भले जिस भाव से,
पर हाँ मैं कवि हूँ ।
-प्रदीप कुमार साहनी
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