बुढ़ापे में-पत्नी के कितने ही रूप
उम्र के इस मोड़ पर
सभी बच्चों ने बसा लिया है अपना घर,
हमें तन्हा छोड़ कर
मैं और मेरी पत्नी,दोनों अकेले है ,
पर मिलजुल कर वक़्त काटते है
अपनी अपनी पीड़ाएँ ,आपस में बांटते है
कई बार ऐसे भी मौके आते है
मुझे अपने परिवार के लोग,
अपनी पत्नी में नज़र आते है
जैसे फुर्सत में कभी कभी ,
जब वो मेरे बालों को सहलाती है
मुझे बचपन में,मेरे बालों को सहलाकर ,
कहानी सुनाती हुई 'दादी' नज़र आती है
और जब वो मेरी पसंद का खाना बना,
बड़ी मनुहार कर ,मुझे प्यार से खिलाती है
उसमे,मुझे मेरी 'माँ'की छवि नज़र आती है
जब कभी बड़े हक़ से ,
छोटी छोटी चीजों के लिए जिद करती है
मुझे अपनी 'बेटी' सी लगती है
और जब नाज़ और नखरे दिखा कर लुभाती है
तब मुझे वो मेरी पत्नी नज़र आती है
कई बार मुझे लगता है कि इसी तरह ,
हम एक दूसरे में,अपना बिछुड़ा परिवार ढूंढते है
बस इसी तरह ,खरामा ,खरामा ,
बूढ़ापे के दिन कटते है
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
उम्र के इस मोड़ पर
सभी बच्चों ने बसा लिया है अपना घर,
हमें तन्हा छोड़ कर
मैं और मेरी पत्नी,दोनों अकेले है ,
पर मिलजुल कर वक़्त काटते है
अपनी अपनी पीड़ाएँ ,आपस में बांटते है
कई बार ऐसे भी मौके आते है
मुझे अपने परिवार के लोग,
अपनी पत्नी में नज़र आते है
जैसे फुर्सत में कभी कभी ,
जब वो मेरे बालों को सहलाती है
मुझे बचपन में,मेरे बालों को सहलाकर ,
कहानी सुनाती हुई 'दादी' नज़र आती है
और जब वो मेरी पसंद का खाना बना,
बड़ी मनुहार कर ,मुझे प्यार से खिलाती है
उसमे,मुझे मेरी 'माँ'की छवि नज़र आती है
जब कभी बड़े हक़ से ,
छोटी छोटी चीजों के लिए जिद करती है
मुझे अपनी 'बेटी' सी लगती है
और जब नाज़ और नखरे दिखा कर लुभाती है
तब मुझे वो मेरी पत्नी नज़र आती है
कई बार मुझे लगता है कि इसी तरह ,
हम एक दूसरे में,अपना बिछुड़ा परिवार ढूंढते है
बस इसी तरह ,खरामा ,खरामा ,
बूढ़ापे के दिन कटते है
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
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