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शनिवार, 26 जुलाई 2014

यूं ही बैठे बैठे

         यूं ही बैठे बैठे

रहे खुद को खुद में ही हरदम समेटे
उमर कट  गयी बस,यूं ही  बैठे  बैठे
यादों के बादल, घने  इतने  छाये ,
लगे आंसू बहने ,यूं ही  बैठे  बैठे
नज़र से जो उनकी ,नज़र मिल गयी तो,
गयी हो  मोहब्बत ,यूं  ही बैठे  बैठे
रहे वो भी चुप और हम भी न बोले,
हुई गुफ़्तगू सब ,यूं  ही  बैठे  बैठे
सिखाया बड़ों ने,करो काम दिल से,
न होगा कुछ हासिल ,यूं ही बैठे  बैठे
बहा संग नदी के ,गया बन समंदर ,
रहा सिमटा कूए में,जल बैठे बैठे
कई राहियों को ,दिला कर के मंजिल,
रही टूटती पर,सड़क  बैठे  बैठे
उमर का सितम था,बचा कुछ न दम था,
जब आया बुढ़ापा ,यूं  ही बैठे बैठे
जो कहते थे कल तक,है चलने में दिक्कत ,
गए कूच  वो कर,,यूं ही  बैठे बैठे
कलम भी चली और चली उंगलियां भी ,
ग़ज़ल लिख दी'घोटू' ,यूं  ही बैठे, बैठे

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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