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बुधवार, 7 नवंबर 2012

बोलती आँखें


अकसर देखा है,
कई बार
निःशब्द हो जाते हैं
जुबान हमारे,
कुछ भी व्यक्त करना
हो जाता है दुष्कर,
अथक प्रयास पर भी
शब्द नहीं मिलते;
कुछ कहते कहते 
लड़खड़ा जाती है जिह्वा,
हृदय के भाव
आते नहीं अधरों तक ।
पर 
ये बोलती आँखें 
कभी चुप नहीं होती ,
खुली हो तो 
कुछ कहती ही है;
अनवरत करती हैं 
भावनाओं का उद्गार,
आवश्यक नहीं इनके लिए 
शब्दों का भण्डार ,
भाषा इनकी है 
हर किसी से भिन्न ।
जो बातें 
अटक जाती हैं
अधरों के स्पर्श से पूर्व,
उन्हें भी ये 
बयाँ करती बखूबी;
ये बोलती आँखें 
कहती हैं सब कुछ,
कोई समझ है जाता 
को अनभिज्ञ रह जाता,
पर बतियाना रुकता नहीं,
हर भेद उजागर करती
ये बोलती आँखें ।

2 टिप्‍पणियां:

  1. बारहा पढने को बाध्य करती रचना है आपकी . .आपकी टिप्पणियाँ हमारी शान हैं ,अभिमान हैं .शुक्रिया .


    मोहब्बत का आगाज़ ,दिल की जुबाँ होती हैं आँखें ,


    मौत का पैगाम होतीं हैं आँखे ,


    लावा ,उन्माद होतीं हैं आँखें .बहुत बढ़िया रचना .बधाई .

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत खूब प्रदीप भाई उम्दा रचना

    जवाब देंहटाएं

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