डंडे का डर
पहले राजे महाराजे फिर मुगल सल्तनत
और कई वर्षों तक फिर अंग्रेजी हुकूमत
हुए गुलाम बने रहने के इतने आदी
हमें कठिन हो रहा पचाना अब आजादी
इसीलिये हम आपस में ही झगड़ रहें है
एक दूजे की टांग खींच कर पकड़ रहे है
बात बात पर चिल्लाते है,लगते लड़ने
एक केंकड़ा दूजे का ना देता बढ़ने
मुश्किल से जिस आजादी का स्वाद चखा है
हमने उसको एक मखौल बना रख्खा है
आसपास दुश्मन है ,विपदा कई खड़ी है
लेकिन हमको सबको अपनी सिर्फ पड़ी है
अपनी ढपली अपना राग पीटते हरदम
मिल कर कभी न कोरस में कुछ गा पाते हम
भले देश में इतने ज्यादा संसाधन है
उन्हें लूट बस अपना पेट भर रहे हम है
बात बात ,बेबात ,करें आपस में दंगे
इस हमाम में तो हम सब के सब है नंगे
रहा यही जो हाल अगर तो मुश्किल होगी
कैसे हमको प्राप्त हमारी मंजिल होगी
इतनी अधिक गुलामी खूं में बैठ गयी जम
बिन डंडे के डर से काम न कर पाते हम
हो डंडे का जोर तभी आता अनुशासन
वरना इधर उधर बिखरे रहते है कण कण
फहराता है सदा किसी का तब ही झंडा
नीचे लगा हुआ होता जब उसमे डंडा
मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
कृपया अपने बहुमूल्य टिप्पणी के माध्यम से उत्साहवर्धन एवं मार्गदर्शन करें ।
"काव्य का संसार" की ओर से अग्रिम धन्यवाद ।