जब तुम ,
बहुत अच्छे हो जाते हो ,
तब स्वयं को एक नाजुक
मोड़ पर खड़े पाते हो ,
सच तो यह है ,
बहुत अच्छा हो जाने से ,
तुम पर जिम्मेदारियों का बोझ ,
और बढ जाता है ,
क्योंकि बड़ा आसान है ,
अच्छा बन जाना ,
और उतना ही दुरूह है
अपने अच्छेपन को निभाना ,
बहुत अच्छा हो जाना ,
स्वयं को आदर्श बना लेना ,
शायद एक दिन तुम्हारे भीतर के अहम् ,
जागृत कर दे ,
हो सकता है अहम् सच्चा हो ,
पर अहम् तो अहम् होता है ,
जो एक क्षण में तुम्हारे ,
आदर्शो की पराकाष्टा ,
के दुर्ग को नेस्तनाबूद कर दे ,
और तब अच्छा होने के सुख की अपेक्षा ,
एक भीषण पीड़ा ,
तुम्हारे हिस्से आएगी ,
अच्छा होना और अहम् का सम्बन्ध ,
आग और फूस का है ,
फूस तो तभी तक सुरक्षित है ,
जब तक आग से दूर है ,
इसलिए अपने अच्छेपन में ,
अहम् को मिलाने का प्रयास ,
कितना घातक है .
विनोद भगत
sundar rachna
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