कोई मुझे कहे जो बूढा
कोई मुझे कहे जो बूढा ,तो मुझको खलता है
बाकी कोई कुछ भी कह दे,वो सब चलता है
धुंधलाइ आँखों ने आवारागर्दी ना है छोड़ी
देख हुस्न को उसके पीछे,भगती फिरे निगोड़ी
मेरा मोम हृदय ,थोड़ी सी , गर्मी जब पाता है
रोको लाख ,नहीं रुकता है ,पिघल पिघल जाता है
तन की सिगड़ी,मन का चूल्हा ,तो अब भी जलता है
कोई मुझे कहे जो बूढा ,तो मुझको खलता है
आँखों आगे ,छा जाती है ,कितनी यादें बिछड़ी
स्वाद लगा मुख बिरयानी का ,खानी पड़ती खिचड़ी
वो यौवन के ,मतवाले दिन ,फुर्र हो गए कबके
पाचनशक्ती क्षीण ,लार पर देख जलेबी टपके
मुश्किल से पर ,मन मसोस कर,रह जाना पड़ता है
कोई मुझे ,कहे जो बूढा ,तो मुझको खलता है
ढीला तन का पुर्जा पुर्जा ,घुटनो में पीड़ा है
उछल कूद करता है फिर भी ,मन का यह कीड़ा है
लाख करो कोशिश कहीं भी दाल नहीं गलती है
कोई सुंदरी ,अंकल बोले ,तो मुझको खलती है
आत्मनियंत्रण ,मन खो देता ,बड़ा मचलता है
कोई मुझे कहे जो बूढा ,तो मुझको खलता है
मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
बहुत ही सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएं