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मंगलवार, 29 जनवरी 2013

नहीं गलती कहीं भी दाल है बुढ़ापे में

      नहीं गलती कहीं भी दाल है बुढ़ापे में

वो भी क्या दिन थे मियां फाख्ता उड़ाते थे ,
                           जवानी ,आती बहुत याद है बुढ़ापे में
करने शैतानियाँ,मन मचले,भले ना हिम्मत,
                               फिर भी आते नहीं हम बाज है बुढ़ापे में 
बड़े झर्राट ,तेज,तीखे,चटपटे  थे हम,
                               गया कुछ ऐसा बदल स्वाद है,बुढ़ापे में
अब तो बातें ही नहीं,खून में भी शक्कर है,
                               आगया  इस कदर मिठास  है बुढ़ापे में
देख कर गर्म जलेबी,रसीले रसगुल्ले ,
                                टपकने  लगती मुंह से लार है बुढ़ापे में
लगी पाबंदियां है मगर मीठा खाने पर ,
                                मन को ललचाना तो बेकार है बुढ़ापे  में 
देख  कर ,हुस्न सजीला,जवान,रंगीला ,
                                 बदन में जोश फिर से भरता है बुढ़ापे में
जब की मालूम है,हिम्मत नहीं तन में फिर भी,
                                 कुछ न कुछ करने को मन करता है बुढ़ापे में
न तो खाने का,न पीने का ,नहीं जीने का,
                                  कोई भी सुख नहीं ,फिलहाल है बुढ़ापे में
कभी अंकल ,कभी बाबा कहे हसीनायें ,
                                     नहीं गलती कहीं भी दाल है ,बुढ़ापे में

मदन मोहन बाहेती'घोटू'


 

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