मगर टिमटिमा कर के जलते तो है
पीने की हमको है आदत नहीं,
मगर दारू घर में हम रखते तो है
खाने पे मीठे की पाबंदी है ,
मिले जब भी मौका तो चखते तो है
खुद का बनाया हुआ हुस्न है,
चोरी छुपे इसको तकते तो है
नहीं सोने देती तू अब भी हमें ,
तेरे खर्राटों से हम जगते तो है
रहा तुझमे पहले सा वो जलवा नहीं,
मगर अब भी तुझ पर हम मरते तो है
अगर नींद हमको जो आती नहीं,
तकिये को बाँहों में भरते तो है
दफ्तर से तो हम रिटायर हुए,
मगर काम घरभर का करते तो है
कहने को तो घर के मुखिय है हम,
मगर बीबी,बच्चों से डरते तो है
ये माना कि हम तो है बुझते दिये ,
मगर टिमटिमा करके जलते तो है
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
1450-दो कविताएँ
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*अनुपमा त्रिपाठी** '**सुकृति**'*
*1*
*भोर का बस इतना*
*पता ठिकाना है*
*कि भोर होते ही*
*चिड़ियों को दाना चुगने*
*पंखों में भर आसमान*
*अपनी अपनी उड़ान*
...
2 घंटे पहले
वाह क्या बात है ।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया अभिव्यक्ति ,गणतंत्र-दिवस की शुभ कामनाएं
जवाब देंहटाएंदेश के 64वें गणतन्त्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!
जवाब देंहटाएं--
आपकी पोस्ट के लिंक की चर्चा कल रविवार (27-01-2013) के चर्चा मंच-1137 (सोन चिरैया अब कहाँ है…?) पर भी होगी!
सूचनार्थ... सादर!