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सोमवार, 30 जनवरी 2017

घोटूजी का टेक्स प्रपोजल

घोटूजी के टेक्स के ये कुछ प्रपोजल है किये
टेक्स फ्री हो सपने सारे ,जितने चाहे,देखिये
टेक्स फ्री हो दोस्ती  पर दुश्मनी पर टेक्स हो
छूट नेकी पर मिले ,लेकिन बदी  पर टेक्स हो
टेक्स आंसू पर लगाओ तो फिर होगा हाल ये
बहने  ना देंगे ,बचा कर, सब रखेंगे  माल  ये
टेक्स गुस्से पर लगाओ,झगड़े की जड़ है यही
दबाया जो ,लोगों ने तो ,मुश्किलें  होगी  नहीं 
टेक्स फ्री कर दो हंसी को ,मुस्कराना भी  फ्री
फ्री दिल का लेना देना ,दिल लगाना भी फ्री 
रूठने पर टेक्स हो  पर मनाने पर छूट हो
साल में दो बार मइके जाने पर भी छूट हो
पत्नीकी फरमाइशों को ,कोई  जब पूरा करे
इसके पहले जरूरी है,साठ प्रतिशत कर भरे
फायदा  ये  ,पत्नी की फरमाइशें घट जायेगी
रोज की किचकिच  कलह फिर घरों से हट जायेगी
टेक्स फ्री बदसूरती हो ,टेक्स ब्यूटीफुल   भरे
औरतें खुद  इसके खातिर ,अपना आलंकन करे
नाज़ और नखरों पे भी ,थोड़ा नियंत्रण चाहिए
बीस प्रतिशत कम से कम ,सरचार्ज लगना चाहिए 
कौन ज्यादा टेक्स दे ,यह कॉम्पिटिशन बढ़ेगा
फिर तो सरकारी खजाना ,चुटकियों में भरेगा

मदनमोहन बाहेती'घोटू'

शनिवार, 28 जनवरी 2017

ऑन लाइन 

आजकल तो ऑनलाइन सभी चीजें मिल रही है 
लाइनों में खड़े होने का चलन फिर भी वही है 
बैंक,एटीएम में और सिनेमा में है  कतारें 
टिकिट तो है ऑनलाइन ,बैठने में पर कतारे 
और उनके आशिकों की ,लम्बी लाइन लग रही है 
आजकल तो ऑन लाइन सभी चीजे मिल रही है    
चाहिए दूल्हा या दुल्हन,गए पण्डित,गए नाइ 
कंप्यूटर की कई  साइट पर मिला करते जमाई 
बॉयोडाटा चेक करके ,बात आगे बढ़ रही है 
आजकल तो ऑनलाइन  सभी चीजे मिल रही है 
नहीं सौदा लाना पड़ता ,लाला की दूकान पर से 
मंगा सकते सभी  चीजें ,फोन पर एक ऑर्डर से 
घर पे पहुंचा दिया करते,बेचनेवाले कई है 
आजकल तो ऑनलाइन  कई चीजें मिल रही है 
वीडियो की कॉन्फ्रेसिंग ,काम निपटाती कई है 
मीटिंगों में भागने की ,अब तुम्हे जरूरत नहीं है 
ऑफिस में बैठे ही सारी  जानकारी मिल रही है 
तुम किसी से चेट  करलो,तुम किसी से डेट करलो 
फोन से खाना मंगा कर आप अपना पेट भरलो 
होटलों  में ,भटकने की ,अब तुम्हे जरूरत नहीं है 
आजकल तो ऑनलाइन  ,सभी चीजें मिल रही है 
पुराने से भी पुराना ,मन लुभाता गीत सुन लो 
सीख लो खाना बनाना ,रेसिपी कोई भी चुनलो 
फोन पर ऊँगली घुमाने की अब आदत बढ़ रही है 
आजकल तो ऑनलाइन सभी चीजें  मिल रही है 
दोस्तों गूगल नहीं है ,ज्ञान का भंडार है ये 
रास्ते सारे दिखाता ,करता बेड़ा पर है ये 
गागर में सागर की उक्ति ,उसी के खातिर कही है 
आजकल तो ऑनलाइन सभी चीजें मिल रही है 
वाई फाई ने बनादी ,हाई फाई जिंदगी है 
एप से भुगतान करदो , पर्स की जरूरत नहीं है 
नौकरी से छोकरी तक ,बताओ क्या क्या नहीं है 
आजकल तो ऑनलाइन सभी चीजें मिल रही है 
माँ की ममता ,भावनाएं,ऑनलाइन नहीं मिलती 
खुशबुओं से भरी कलियाँ ,ऑनलाइन नहीं खिलती 
ऑनलाइन सुविधाएं ,हमें निष्क्रिय कर रही है 
आजकल तो ऑनलाइन सभी चीजें मिल रही है 

मदनमोहन बाहेती 'घोटू'
 जिंदगी का चलन 

आदमी कमजोरियों  का  दास  है 
जब तलक है सांस ,तब तक आस है 
ये तो तुम पर है की काटो किस तरह,
जिदगी के  चारों  दिन ही ख़ास है 
हम तो दिल पर लगा बैठे दिल्लगी 
उनको अब जाकर हुआ अहसास है 
बाल बांका कोई कर सकता नहीं ,
अगर खुद और खुदा में  विश्वास है 
उमर भर तुम ढूँढा करते हो  जिसे,
मिलता  वो, बैठा  तुम्हारे  पास  है 
बहुत ज्यादा ख़ुशी भी मिल जाए तो,
हर किसी को नहीं आती रास  है 
मुरादें मनचाही सब मिल जायेगी ,
कर्म में तुमको अगर विश्वास  है 
आया जो दुनिया में एक दिन जाएगा ,
फिर भी तुमको ,मौत का क्यों त्रास है 
स्वर्ग भी है और यहीं पर नर्क है ,
और बाकी  सभी कुछ बकवास है 

घोटू 
तजुर्बा 

मुँह बिचका दिया ध्या नहीं हमपे जरा सा,
         बस देख कर के रंग उजला मेरे बाल  का 
एक बार आजमा के अगर देख जो लेते,
          लग जाता पता ,भाव तुम्हे आटे  दाल का 
मेरी तुम्हारी उम्र में अंको का उलट फेर ,
         छत्तीस तुम ,मैं तिरेसठ ,अंतर  कमाल का 
इतने बरस तक ,खूब खाये खेले  हुए हम,
         हमको बहुत तजुर्बा है ,डीयर धमाल  का 

घोटू 
हो गयी ऐसी की तैसी मेरी खुमारी की 

गुजारा वक़्त मैने ,तेरा जाम ले लेकर 
जिया था लम्हा लम्हा ,तेरा नाम ले लेकर 
आपने हद ही करवा दी इंतजारी  की 
हो गयी ऐसी की तैसी मेरी खुमारी की 
बड़ा बेचैन ,बेकरार प्यार था  मेरा 
कई दिनों से कुछ ,तुम पर उधार था मेरा 
आज तारीख तय थी,चुकाने ,उधारी की 
हो गयी ऐसी की तैसी मेरी खुमारी की 
हमारे दिल को तरसा ,कब तलक यूं तोड़ोगे 
यूं ही तड़फाने का ,अंदाज कब ये छोड़ोगे 
क्या यही ,रस्म हुआ करती ,यार,यारी की 
हो गयी ,ऐसी की तैसी मेरी खुमारी की 
अब चले आओ कि तुम बिन नहीं जिया जाता 
अपने दीवाने पर, यूं ,जुल्म ना किया जाता  
आपसे दिल लगाया ,हमने भूल भारी की 
हो गयी,ऐसी की तैसी मेरी खुमारी की 

घोटू 
 जी का जंजाल 

इस जी का क्या ,जी तो क्या क्या सोचा करता है 
जी जी करके , जीता जाता,  जी जी  मरता  है 
कभी चाहता  वह ,परियों को,बाहों में ले लूं 
कभी मचलता जी,गुलाब की,कलियों संग खेलू
कभी ललकता ,पंख लगा कर ,अम्बर में घूमू  
कभी बावरा ,चाहा करता ,चन्दा को  चूमू 
पर क्या जी की ,हर एक इच्छा पूरी होती है 
हर जी की ,कुछ ना कुछ तो ,मजबूरी होती है 
हाथ निराशा ,जब लगती तो बहुत अखरता है 
इस जी का क्या,जी तो क्या क्या ,सोचा करता है 
इच्छाओ का क्या,इनका तो कोई अंत नहीं 
जिसको संतुष्टी मिल जाए ,जी वो संत नहीं 
एक इच्छा पूरी होती,दूजी जग जाती है 
यह अपूर्णता ,चिंता बन ,पीछे लग जाती है 
है प्रयास और लगन जरूरी ,इच्छा पाने को
और भाग्य भी आवश्यक है ,साथ निभाने को 
इसी चक्र में मानव,जीवन जीता ,मरता है 
इस जी का क्या,जी तो क्या क्या ,सोचा करता है 

मदनमोहन बाहेती'घोटू' 

बुढापा एन्जॉय करिये 

आपका चलता नहीं बस,कामना होती कई है 
कुछ न कुछ मजबूरियों बस ,पूर्ण हो पाती नहीं है 
आपका चलता नहीं बस ,व्यस्तता के कभी कारण 
कभी मन संकोच करता ,गृहस्थी की कभी उलझन 
भावना मन में अधूरी  दबा तुम  रहते   उदासे
पूर्ण करलो वो भड़ासें ,जब तलक चल रही साँसे 
अभी तक जो कर न पाये ,वो सभी कुछ ट्राय करिये 
,बुढापा एन्जॉय   करिये ,बुढापा  एन्जॉय  करिये 
जिंदगानी के सफर की ,सुहानी सबसे उमर ये 
तपा दिन भर,प्रखर था जो ,सूर्य का ढलता प्रहर ये 
सांझ की शीतल हवाएँ,दे रही तुमको निमंत्रण 
क्षितिज में सूरज धरा  को,कर रहा अपना समर्पण 
चहचहाते पंछियों के ,लौटते दल ,नीड में है 
यह मधुर सुख की घडी है,आप क्यों फिर पीड़ में है 
सुहानी यादों के अम्बर में,बने पंछी  बिचरिये 
बुढापा एन्जॉय करिये ,बुढापा एन्जॉय करिये 
अभी तक तो जिंदगी तुम ,औरों के खातिर जिये है
जो कमाया या बचाया ,छोड़ना किसके लिए है 
पूर्ण सुख उसका उठा लो ,स्वयं हित ,उपभोग करके 
हसरतें सब पूर्ण करलो ,रखा जिनको  रोक करके 
बचे जीवन का हरेक दिन ,समझ कर उत्सव मनायें  
मर गए यदि लिए मन में , कुछ अधूरी कामनाएं  
नहीं मुक्ति मिल सकेगी ,सोच कर ये जरा डरिये 
बुढापा एन्जॉय करिये ,बुढापा एन्जॉय  करिये 

मदनमोहन बाहेती'घोटू'
 

रविवार, 22 जनवरी 2017

खराब मौसम

जब कभी भी ये मौसम खराब होता है
अपने हाथों में तो जाम ए शराब होता है
क्योंकि कहते है उसे काटता नहीं जूता ,
जो कि पैरों में ,पहने  जुराब  होता है
ठिठुरती सर्दियों में नींद आती मुश्किल से ,
चैन से  सोता ,जो ओढ़े लिहाफ होता है
चांदनी रोज कहाँ,एक दिन अमावस को,
न जाने गुम कहाँ ,वो आफताब  होता है
हजारों हसरतें होती सभी की दुनिया में,
नहीं पूरा किसी का ,हरेक ख्वाब होता है
एक दो चार ही अम्बानी ,बिरला बनते है,
मेहरबां अल्ला न ,सब पर जनाब होता है
कभी इठलाता जो जुल्फों में हुस्न की सजकर ,
 कभी मैयत में वो बिखरा  गुलाब होता  है
आज तो जी लें,मरेंगे तो देखा जाएगा ,
कयामत को तो सभी का हिसाब होता है

मदनमोहन बाहेती'घोटू'          
बूढा आशिक़

बूढा आशिक़ लोग कहते है मुझे ,
क्या बुढापे में न होती आशिक़ी
कुलबुलाता अब भी कीड़ा इश्क़ का ,
जवानी की उम्र ,जब कि  जा चुकी
क्या जवानों ने ही है लेकर रखा ,
आशिक़ी का ठेका ,बूढ़े कम नहीं
बूढ़े सीने में भी है दिल धड़कता,
बूढ़े तन में ,होता है क्या दम नहीं
दिल तो दिल है,बूढा हो या हो जवां ,
जाने किस पर,क्या पता,आजाय कब
लोग कहते ,छोडो चक्कर इश्क़ का ,
इस उमर में,राम का लो ,नाम  अब
राम को  भी  जो करेंगे याद  हम,
इश्क़ होगा वो भी सच्चा राम से
उम्र कुछ भी हो ,न लेकिन छूटती ,
इश्क़ की आदत  कभी ,इंसान से

घोटू 
घोड़ी पर बैठने की सजा

रहती सवार सर पे,हरदम है बीबीजी ,
सेवा में दौड़ दौड़ ,हुआ जाता पतला हूँ
जिद करते बच्चे की ,घोडा बनो पापाजी,
बिठा पीठ पर उनको,घुमा रहा,पगला हूँ
गृहस्थी की गाडी में ,जुता हुआ हूँ जबसे ,
घरभर का बोझा मैं ,उठा रहा सगला हूँ
गलती से एकबार ,घोड़ी पर क्या बैठा ,
घोडा बन बार बार,चूका रहा बदला हूँ

घोटू
पचहत्तरवें जन्मदिन पर

सही हंस हंस, उम्र की हर पीर मैंने 
नहीं खोया ,मुसीबत में , धीर मैंने
भले  ही हालात अच्छे थे या  बदतर
इस तरह मैं पहुंच पाया हूँ  पिचहत्तर
सदा हंस कर गले सबको ही लगाया
जो भी था कर्तव्य,अपना सब निभाया
खुले हाथों ,खुले दिल से प्यार बांटा
मुस्करा कर हर तरह का वक़्त काटा
धूप में भी तपा और सर्दी में ठिठुरा
बारिशों में भीग कर मैं और निखरा
तभी खुशियां मुझे हो पायी मय्त्सर
इस तरह मै पहुँच पाया हूँ  पिचहत्तर
प्रगति पथ पर ठोकरें थी,छाँव भी थी
मुश्किलें और मुसीबत हर ठाँव भी थी
गिरा,संभला ,फिर चला या डगमगाया
दोस्तों  ने   होंसला  भी  था  बढाया
मिले निंदक भी कई तो कुछ प्रशंसक
करी कोशिश डिगाने की मुझे भरसक
राह  मेरी ,रोक वो पाए नहीं ,पर
इस तरह मैं पहुँच पाया हूँ पिचहत्तर 
साथ मेरे धीर भी था,धर्म भी था
माँ पिता का किया सब सत्कर्म भी था
दुश्मनो ने भले मेरी  राह रोकी
भाई बहनो और सगो ने पीठ ठोकी
निभाने को साथ जीवनसंगिनी थी 
दोस्तों की दुआओं की ना कमी थी
साथ सबने ही निभाया आगे बढ़कर
इसलिए मै पहुँच पाया हूँ पिचहत्तर
अभी तक कम ना  हुई है महक मेरी
वो ही दम है ,खनखनाती चहक मेरी
किया हरदम कर्म में विश्वास मैंने 
सफलता की नहीं छोड़ी आस मैंने
लीन रह कर ,प्रभु  की आराधना में
जुटा ही मैं रहा जीवन साधना में
प्रगतिपथ पर ,अग्रसर था,उत्तरोत्तर
इसलिए मैं पहुँच पाया हूँ पिचहत्तर
तपा हूँ,तब निखर कर कुन्दन बना हूँ
महकता हूँ,सूख कर चन्दन बना हूँ
जाने अनजाने बुरा कुछ यदि किया हो
भूल से  यदि हो गयी कुछ गलतियां हो
निवेदन करबद्ध है ,सब क्षमा करना
प्रेम और शुभकामनाएं ,बना रखना
प्यार सबका ,रहे मिलता  ,जिंदगी भर
इसलिए  मैं पहुँच पाया हूँ पिचहत्तर
तीन चौथाई उमर तो कट गयी  है
रास्ते की मुश्किलें सब हट गयी है
भले ही तन में नहीं वो जोश बाकी
मगर अब भी चल रहा हूँ, होंश बाकी
वक़्त के संग भले जो मैं जाऊं थक भी
कामना है करूंगा ,पूरा शतक भी
पार  करना है  मुझे यह भवसमन्दर
इसलिए मैं पहुँच पाया हूँ पिचहत्तर

मदनमोहन बाहेती'घोटू'

शनिवार, 21 जनवरी 2017

ग्रहों का खेल 

कहते है कि आदमी का भाग्य सारा ,
                   नवग्रहों का खेल ये कितना गजब है 
सिर्फ नौ ,बारह घरो की कुंडली में,
                   अपने क्रम से घूमते रहते ही सब  है
 कोई बैठा रहता है कोई के घर में  ,
                 और किसी की किसी के संग दुश्मनी है 
कोई सा ग्रह भाग्य के स्थान पर है ,
                     देखता  पर वक्रदृष्टी से  शनि है
 शुक्र गुरु मिल लाभ के स्थान पर है ,
                       शत्रु के स्थान पर राहु डटा  है 
कर रहा मंगल किसी का है अमंगल ,
                    और किसी का सूर्य केतु से कटा है 
है उदय का ग्रह कोई तो अस्त का है,
                   और किसी का नीच वाला चन्द्रमा है 
और कहीं पर बुध बैठा स्वग्रही बन 
                    अजब सा व्यवहार सबका ही बना है 
सबकी अपनी चाल होती,घर बदलते ,
                   कोई किस से मिल अजब संयोग देता
शत्रु के घर ,मित्र ग्रह रहते कई दिन ,
                     कोई सुख तो कोई प्रगति रोक देता 
सिर्फ नौ ग्रह,रह न पते मगर टिक कर ,
                    जब कि है उपलब्ध बारह घर यहां पर
एक दूजे के घरों में  घुसे रहते, 
                जब कि सबका ,अपना अपना है वहां घर 
मित्र कोई है किसी का, कोई  दुश्मन 
                            चाल अपनी चलते ही रहते है हर दिन 
तो बताओ ,इतने सारे लोग हम तुम,
                       दोस्त बन ,संग संग रहे,क्या है ये मुमकिन 
हम करोड़ों लोग है  और  कई बेघर ,
                          भटकने का सिलसिला ये रुका  कब है 
 कहते है कि आदमी का भाग्य सारा ,
                             नौ ग्रहों का खेल ये कितना अजब है 

मदनमोहन बाहेती 'घोटू'

शुक्रवार, 20 जनवरी 2017

क्या पता 

कौन की किससे निभेगी,क्या पता 
कौन की   गुड्डी  उड़ेगी,क्या पता 
आज मिल कर उड़ाने आये सभी,
पर पतंग किस की कटेगी.क्या पता 
कुछ धरम की,कुछ का मंजा जात का 
और किसी ने ले लिया संग हाथ का 
बेटे ने ही बाप की जब काट दी ,
पप्पू की कैसे बचेगी, क्या पता 
कौन जाने , किसका  मंजा तेज है 
और किसका,किससे लड़ता पेंच है
 ढील देकर कौन किसकी काट दे,
और फिर किसकी बचेगी.क्या पता 
बहनजी ने सब पतंगे बेच दी 
डोर लेकिन हाथ में अपने रखी
भारी है कुछ ,उड़ने में असमर्थ है,
पर लगा ,फिर भी उड़ेगी ,क्या पता  
बाहुबलियों की पतंगे ,चन्द है 
नोटबन्दी  ने किया सब बन्द है 
अब तो शाही पतंगे ,आकाश में,
बचेगी या फिर उड़ेगी ,क्या पता 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

शनिवार, 14 जनवरी 2017

जीवन क्रिकेट 

इस जीवन क्रिकेट के पिच पर ,
खेल रहे हम सभी खिलाड़ी 
सबकी अपनी अपनी क्षमता ,
कोई सिख्खड़ ,कोई अनाड़ी 
मै भी जब इस पिच पर उतरा ,
था नौसिखिया ,सभी सरीखा 
हाथों में गिल्ली डंडा ले,
पहला खेल उसी से सीखा 
धीरे धीरे बड़ा हुआ तो ,
ये क्रिकेट सी दुनिया देखी 
तब ही सीखा बेट पकड़ना ,
और बॉल भी तब ही फेंकी 
जब से बेट हाथ में आया  ,
मैंने अपना हुनर दिखाया 
बचा विकेट ,रन लिए मैंने,
थोड़ा मुझे खेलना आया 
धीरे धीरे रन ले लेकर , 
कभी शतक भी मैं जड़ पाया 
  कभी एलबीडब्ल्यू आउट ,
कभी कैच मैंने पकड़ाया 
कभी बॉल संग छेड़छाड़ के ,
लोगों ने इल्जाम लगाए 
कितनी बार अपील करी कि,
मैं आउट हूँ,वो चिल्लाये 
कभी रेफरी ने सच देखा,
कभी तीसरे अम्पायर ने 
किन्तु खेल को पूर्ण समर्पित ,
टिका हुआ अब भी पिच पर मैं 
हारा ,लोगो ने दी गाली,
जीता तो बिठलाया काँधे
पर मैंने धीरज ना खोया,
डिगे न मेरे अटल इरादे 
स्पिन गुगली बॉलिंग करके ,
खूब दिये लोगों ने  धोखे 
लकिन जब भी पाए मौके ,
मैंने मारे ,छक्के,चौके 
धीरे धीरे रहा खेलता ,
आपा ना खोया,धीरज धर 
अपना ध्यान खेल पर देकर 
जमा हुआ हूँ अब भी पिच पर 
पांच दिवस के टेस्ट मैच के ,
चार दिवस तो बीत गए है 
अब तक का स्कोर देख कर ,
लगता है हम जीत गए है 

मदनमोहन बाहेती 'घोटू ' 

  
 
कागज की नाव 

बचपन में 
बारिश के मौसम में 
जब बहते परनाले ,
बन जाते थे नन्ही नदिया 
मैं तैराता था उसमे ,
कागज़ की नैया 
और गीली माटी में ,
नंगे पैरों ,छपछप करता हुआ ,
उसके पीछे दौड़ा करता था 
और जब तक वो आँखों से ,
ओझल नहीं हो जाती ,
पीछा नहीं छोड़ा करता था 
फिर नयी  नाव बना कर तैराता 
पूरी बारिश,यही सिलसिला चला जाता 
आज सोचता हूँ ,
मैंने जीवन भर ये ही तो किया है 
कोई न कोई कागज की नाव के पीछे दौड़ ,
अब तक जीवन जिया है 
हाँ,नैयायें बार बार बदलती गयी 
कुछ डूबती गयी  ,कुछ आगे बढ़ती गयी 
कभी पढ़लिख कर डिग्री पाने की नाव थी 
कभी अच्छी नौकरी पाने की चाह थी 
या फिर गृहस्थ जीवन जमाना था 
बाद में अपनी जिम्मेदारियां निभाना था 
इन चक्करों में ,कितनी ही ,
हरे और गुलाबी नोटों की नाव के पीछे दौड़ा
उनका पीछा नहीं छोड़ा 
और उमर के इस दौर में ,
जब मैं पक गया हूँ 
कागज़ के नावों के पीछे,
 दौड़ते दौड़ते थक गया हूँ  
 आज मुझे एक ऐसी नाव की तलाश है ,
जो मुझसे कहे 
मेरे पीछे तुम बहुत दौड़ते रहे 
आओ,आज मैं  तुम्हारी थकान मिटा देती हूँ 
तुम मुझमे बैठ जाओ. ,
मैं तुम्हे बैतरणी पार करा देती हूँ 

मदनमोहन बाहेती'घोटू '
 तुम क्यों होते हो परेशान 

आई जीवन की अगर शाम 
तुम क्यों होते हो  परेशान 
ये रात अमां की ना काली ,भैया ये तो दीवाली है 
तुम इसे मुहर्रम मत समझो,ये ईद सिवइयों वाली है 
तुमने उगता सूरज देखा ,तपती दोपहरिया भी देखी
यौवन के खिलते उपवन को ,महकाती कलियाँ भी देखी 
हंसती गाती और मुस्काती ,दीवानी परियां भी देखी 
कल कल करती नदियां देखी ,तूफानी  दरिया भी देखी 
कब रहा एक सा है मौसम 
खुशियां है कभी तो कभी गम 
सूखे पतझड़ के बाद सदा ,आती देखी हरियाली  है 
                                    ये ईद सिवइयों वाली है 
कितनी ही ठोकर खाकर तुम ,चलना सीखे,बढ़ना सीखे 
हर मोड़ और चौराहे पर  ,पाये अनुभव ,मीठे ,तीखे 
जी जान जुटा कर लगे रहे ,अपना कर्तव्य  निभाने को 
दिनरात स्वयं को झोंक दिया, तुमने निज मंजिल पाने को
सच्चे मन और समर्पण से 
तुम लगे रहे तन मन धन से 
तुम्हारी त्याग तपस्या से ,घर में आयी खुशियाली है 
                                    ये ईद सिवइयों वाली है
अब दौर उमर का वो आया ,मिल पाया कुछ आराम तुम्हे 
निभ गयी सभी जिम्मेदारी  ,अब ना करना  है काम तुम्हे 
अब जी भर कर उपभोग करो ,तुमने जो करी  कमाई है 
खुद के खातिर भी जी लेने की ,ये घडी सुहानी आई  है 
क्या हुआ अगर तुम हुए वृद्ध 
अनुभव में हो सबसे समृद्ध 
लो पूर्ण मज़ा ,क्योंकि ये उमर ,अब तो बे फ़िक्री वाली है 
                                           ये ईद सिवइयों वाली है 
  मदनमोहन बाहेती'घोटू'
आओ हम संग संग धूप चखें 

हो सूरज किरण से आलोकित ,दूना  तुम्हारा रूप सखे 
इस ठिठुराती सी सर्दी में आओ हम संग संग धूप चखें 
निज नाजुक कर से मालिश कर ,तुम मेरे सर को सहलाओ 
मैं छील मुंगफलियाँ तुमको दूं,तुम गजक रेवड़ी संग खाओ 
आ जाए दोहरा मज़ा अगर, मिल जाए पकोड़े खाने को ,
और संग में हो गाजर हलवा  जो मौसम के अनुरूप सखे 
                                   आओ हम संग संग धूप  चखें 
मक्की की रोटी गरम गरम और संग साग हो सरसों का 
मख्खन से हाथों से खाऊं ,पूरा हो सपना  बरसों का 
हो उस पर गुड़ की अगर डली,गन्ने के रस की खीर मिले ,
सोने पे सुहागा हो जाए ,हमको सुख मिले अनूप  सखे 
                                  आओ हम संग संग धूप  चखे 
मैं कार्य भार  से मुक्त हुआ ,चिंता है नहीं फिकर कोई 
हम चौबीस घंटे साथ साथ ,मस्ती करते,ना डर  कोई 
सूरज ढलने को आया पर ,मन में ऊर्जा है ,गरमी  है,
हो गयी शाम,चुस्की ले ले,अब पियें टमाटर सूप  सखे 
                                आओ हम मिलकर धूप चखें 

मदनमोहन बाहेती;घोटू'
मकर संक्रांति पर प्रणयनिवेदन 

दिन गुजारे ,प्रतीक्षा में ,शीत में ,मैंने  ठिठुर कर 
सूर्य  आया  उत्तरायण,नहीं  तुमने  दिया  उत्तर 
है मकर संक्रान्ति आयी ,शुभ मुहूरत आज दिन का 
पर्व है यह खिचड़ी का ,दाल चावल के मिलन का 
हो हमारा मिलन ऐसा ,एक दम ,हो जाए हम तुम 
दाल तुम ,मैं बनू चावल,खिचड़ी बन जाय हमतुम 
कहते कि आज के दिन ,दान तिल का पुण्यकारी 
पुण्य कुछ तुम भी कमा लो,बात ये मानो  हमारी 
इसलिए तुम आज के दिन,प्रिये यहअहसान करदो  
तिल तुम्हारे होठ पर जो है,मुझे  तुम  दान  कर दो 

मदनमोहन बाहेती'घोटू'

बुधवार, 4 जनवरी 2017

 परेशां हम खामखां है 

उम्र का ये तो असर है ,परेशां हम खामखां है 
कल तलक हम शूरमा थे ,बन गए अब चूरमा है 

उगलते थे आग हम भी ,थे कभी ज्वालामुखी हम 
पड़े है जो आज  ठन्डे ,हो रहे है क्यों  दुखी हम 
कभी गरमी ,कभी सरदी ,बदलता मिज़ाज़ मौसम 
एक जैसा वक़्त कब  है ,कभी खुशियां है कभी गम 
सूर्य की तपती दुपहरी ,शाम बन कर सदा ढलती 
राख में तबदील होती  है हमेशा  आग जलती 
जोश हर तूफ़ान का  ,एक मोड़ पर आकर थमा है 
उमर का ये तो असर है ,परेशां हम खामखां  है 
क्यों हमारी सोच में अब आ गयी मायूसियां है 
सूरमाओं ने हमेशा  ,शेरो सा जीवन  जिया है 
हमेशा ,हर हाल में खुश ,मज़ा तुम लो जिंदगी का 
सूर्य की अपनी तपिश है ,अलग सुख है चांदनी का 
सख्त होती बाटियाँ है ,चूरमा होता  मुलायम 
दांत में अब दम नहीं तो क्यों इसका स्वाद ले हम 
रौशनी दें जब तलक कि तेल दिए में बचा है 
उमर का ये तो असर है ,परेशां हम खामखां है 

मदन मोहन बाहेती'घोटू '

टावर वन की पिकनिक 
१ 
पिकनिक किट्टी के लिए,छोड़ा अपना 'नेस्ट'
टावर वन की  रानियां, जा  पहुंची  ' फारेस्ट'
जा पहुंची ' फारेस्ट ', मचाई  मस्ती  ऐसी 
खुली हवा में ,सजधज ,उडी तितलियों जैसी 
सबने अपना अपना एक  पकवान  बनाया 
सबने मिलजुल ,बीस घरों का स्वाद उठाया 
२ 
वन्दनाजी की सेन्डविच,और पीनट की चाट 
मीनाजी के सूप का ,था अपना ही ठाठ 
था अपना ही ठाठ ,ढोकले तृप्तिजी के 
एक से बढ़ एक स्वाद रहे पकवान सभी के  
सुनीता जी की खीर, जलेबी तारा जी  की 
राज आंटी की चाय ,रही फेवरिट सभी की 
 सीमाजी की पूरियां,मिस्सी ,बड़ी लजीज 
शालिनी जी के दहीबड़े,बड़े गजब की चीज
बड़े गजब की चीज ,स्नेहा जी  के छोले 
अनीता जी की दाल बाटियाँ ,सर चढ़ बोले 
मोनिका जी का चिल्ली चाप ,चटपटा सुहाया 
कंचन जी का फ्रुटसलाद ,सभी को भाया 
४ 
मिले जुले पकवान थे ,मिलाजुला था स्वाद 
मिल जुल खाये सभी ने,सदा रहेंगी याद 
सदा  रहेगी  याद ,किट्टी के पिकनिक वाली 
खुली  धूप  में खेलकूद और मस्ती प्यारी 
फिर भी दिल का एक कोना था सूना सूना 
होते पति जो साथ,मज़ा आ जाता  दूना 

घोटू 
  
 


              

रविवार, 1 जनवरी 2017

गुजरते लम्हे.

हर "दिन" अपने संग कुछ लेकर आता है
कभी कुछ  हमसे ले कर चले जाता है,

जो कभी टूटे जाये कोई ख़्वाब अपना,
तो अगला पल फिर नयी उम्मीदे ले अाता है,

किसी पल जो गम में भींग जाये आँखे,
तो अगला लम्हा यार के मानिद रुमाल थमाता है,

जो एक पल को ख़ुशी हो भी जाए जुदा तुमसे,
तो अगला पल मुस्कुरा के बाँहे फैलाता है,

कोई लम्हा ले आता हैै, मौसम ऐ हिज़्र
तो कोई दिन यहाँ, शाम ऐ वस्ल दे जाता है,

कोई दिन यहां वीरानियों के मेले दिखाता है
तो दिन का कोई लम्हा महफ़िल ऐ अहवाब सजाता है,

कोई लम्हा ठोकर देकर गिराता है ,
तो अगला लम्हा फिर से उठकर जीना सिखाता है,

यूँ ही लम्हे दर लम्हे, एक लम्हे में साल गुज़र जाता है,
तो आता लम्हा अपने संग एक नया साल ले आता है,

बस जीना होता है, हर लम्हे में ज़िन्दगी को यहाँ,
की रिवाज़ ऐ वक़्त है "शज़र"
जो बीता तो फिर वापस नही आता.!

©अंकित आर नेमा "शज़र"






शनिवार, 31 दिसंबर 2016

सर्दी में दुबकी कवितायें


छुपा चंद्रमुख ,ओढ़े कम्बल ,कंचन बदन शाल में लिपटा 
ना लहराते खुले केश दल ,पूरा  तन आलस में  सिमटा 
तरस गए है दृग दर्शन को ,सौष्ठव लिए हुए उस तन के 
मुरझाये से ,दबे पड़े है , विकसित पुष्प ,सभी यौवन के 
बुझा बुझा सा लगता सूरज ,सभी प्रेरणा लुप्त हुई है 
सपने भी अब  शरमाते है ,और भावना  सुप्त हुई है 
सभी तरफ छा रहा धुंधलका ,डाला कोहरे ने डेरा है 
मन ना करता कुछ करने को ,ऐसा आलस ने  घेरा है 
आह ,वाष्प बन मुख से निकले,बातें नहीं,उबासी आती 
हुई पकड़ ऊँगली की ढीली ,कलम ठीक से लिख ना पाती 
ठिठुर गए उदगार,शब्द भी, सिहर सिहर आते है  बाहर 
 सर्दी में मेरी कविताये,दुबकी है  कम्बल के  अंदर 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

डर और प्यार


जो विकराल ,भयंकर होते ,और दरिंदगी जो करते है 
या फिर भूत,पिशाच,निशाचर,इन सबसे हम सब डरते है 
बुरे काम से डर लगता है ,पापाचार  डराता हमको 
कभी कभी थप्पड़ से ज्यादा ,झूंठा प्यार डराता हमको 
माँ तो लेती पक्ष ,डराती है पर पापा की नाराजी 
दफ्तर में अफसर का गुस्सा ,या निचलों की मख्खनबाजी 
स्कूल में एक्ज़ाम डराता ,करना घर में काम डराता 
महबूबा का मीठा गुस्सा ,बदनामी का नाम डराता  
बुरी चीज ही हमे  डराये ,ऐसा ही ना होता हरदम 
कुछ प्यारी और अच्छी चीजों से भी डर कर रहते है हम  
परमपिता अच्छे है भगवन,पर हम उनसे भी डरते है 
देख रहे वो ,उनके डर से ,पाप कर्म कुछ कम करते है 
सबको अच्छी लगे मिठाई,आलू टिक्की,चाट पकोड़ी 
डाइबिटीज और केलोस्ट्राल के ,डर से हम खाते है थोड़ी 
इतनी अच्छी होती पत्नी, हर पति प्यार उसे करता है 
शेर भले ही कितना भी हो ,पर वो पत्नी से डरता है 
कभी बरसता ,हद से ज्यादा ,पत्नीजी का अगर प्यार है 
तो डर है निश्चित ही उस दिन ,पति होने वाला हलाल है 
बहुत अधिक दुख से डर लगता,बहुत अधिक सुख हमे डराता 
सचमुच बड़ा समझना मुश्किल,है डर और प्यार का  नाता 

घोटू  

बीते दिन

         
बीत गए दिन गठबंधन के 
अब तो लाले है चुम्बन के 
सभी पाँचसौ और हज़ारी ,
नोट बन्द है ,यौवन धन के 
ना उबाल है ना जूनून है 
एकदम ठंडा पड़ा खून है 
मात्र रह गया अस्थिपंजर ,
ऐसे हाल हुए इस तन  के 
मन का साथ नहीं देता तन 
सूखा सूखा सा हर मौसम 
रिमझिम होती थी बरसातें ,
बीते वो महीने सावन के 
बिगड़ी आदत जाए न छोड़ी 
इत  उत ताके ,नज़र निगोड़ी 
लेकिन तितली पास  न फटके ,
सूखे पुष्प देख  उपवन   के 
मन मसोस कर अब जीते है 
और ग़म  के आंसू  पीते   है
राधा,गोपी घास न   डाले ,
तट सूने है वृन्दावन  के 

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

सर्दी और बर्फ़बारी

         

उनने तन अपना ढका जब ,श्वेत ऊनी शाल से,
             लगा इस पहाड़ों पर बर्फ़बारी हो गयी     
बादलों ने चंद्रमा को क़ैद जैसे कर लिया ,
         हुस्न के दीदार पर भी ,पहरेदारी हो गयी 
जिनकी हर हरकत से मन में जगा करती हसरतें ,
                वो नज़र आते नहीं तो बेकरारी हो गयी  
हिलते डुलते जलजलों के सिलसिले अब रुक गए,
      दिलजले आशिक़ सी अब हालत हमारी हो गयी  
  
 'घोटू '      

पुराने नोटों की अंतर पीड़ा

    

एक वो भी जमाना था,हम सभी के थे दुलारे 
प्यार  करते  थे  हमें सब, चाहते बांहे पसारे 
झलक हल्की सी हमारी ,लुभाती सबका जिया थी 
छुपा दिल सा,साड़ियों में ,हमें रखती गृहणियां थी 
उनके पहलू में कभी बंध ,कभी ब्लाउज में दुबक कर 
बहुत हमने मौज मारी ,और उठाया मज़ा छक  कर 
वक़्त ने पर एक दिन में ,हुलिया  ऐसी बिगाड़ी 
एक पिन में हुई पंक्चर ,हेकड़ी सारी  हमारी 
मार ऐसी पड़ी हम पर ,जीने के लाले पड़े है 
कल तलक रंगीन थे हम,आजकल काले पड़े है 
हाँ,कभी हम नोट होते ,पांच सौ के और हज़ारी 
शान कल तक थी रईसी ,बन गए है अब भिखारी 
आज हम आंसू बहाते ,और दुखी है इसी गम से 
लोग लाइन में लगे है, छुड़ाने को पिंड  हम से 
पसीने और खून की हम ,कभी थे  गाढ़ी कमाई 
और बुरा जब वक़्त आया ,सभी ने  नज़रें  चुराई 
आदमी की जिंदगी में ,ऐसा भी है  समय  आता 
आप जिनसे प्यार करते ,तोड़ देते वही  नाता 
बात नोटों की नहीं है,हक़ीक़त यह जिंदगी की 
चवन्नी हो या हज़ारी,  बुरी गत होती सभी की 
जमाने की रीत है ये ,और ये ही सृष्टि क्रम है 
मैं,अहम्,अपना पराया,सब क्षणिक है और भ्रम है 
हाथ ले, यमपाश कोई, मिटाने  अस्तित्व आता 
साथ कुछ जाता नहीं है,सब यहीं पर छूट जाता 
चाहते सब नवागत को ,पुराने को भूल जाते 
व्यर्थ ही हम दुखी होकर ,हृदय को अपने जलाते  
इसलिए बेहतर यही है ,रखें ये संतोष  मन में 
हो गए है अब रिटायर ,कभी हम भी थे चलन में 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

बुधवार, 14 दिसंबर 2016

मटर के दानो सी मुस्कान

 

माँ ,जो सारा जीवन,
सात बच्चों के परिवार को ,
सँभालने में रही व्यस्त 
हो गयी काम की इतनी अभ्यस्त 
बुढापे में ,बिमारी के बाद ,
जब डॉक्टर ने कहा करने को विश्राम 
बच्चे ,काम नहीं करने देते ,
और उसका मन नहीं लगता 
बिना किये काम 
हर बार ,हर काम के लिए ,
हमेशा आगे बढ़ती है 
और मना करने पर ,
नाराज़ हो,लड़ती है 
सर्दियों में जब कभी कभी ,
मेथी या बथुवे की भाजी आती है 
तो वो उन्हें सुधार कर ,
बड़ा संतोष पाती है 
 परसों ,पत्नी जब पांच किलो, 
मटर ले आयी 
तो माँ मुस्कराई 
झपट कर मटर की थैली ली थाम 
बोली वो कम से कम ,कर ही सकती है ,
मटर छीलने का काम 
वो बड़ी  खुश थी ,यह सोच कर कि ,
घर के काम में उसका भी हाथ है 
उसने जब मटर की  फली छीली,
तो मटर की फली से झांकते हुए दाने ,
ऐसे नज़र आये जैसे वो मटर नहीं,
ख़ुशी छलकाते ,माँ के मुस्कराते दांत है 

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 

तुम जियो हज़ारों साल


जब  आप जन्मदिन मनाते है    
लोग शुभकामनाये देते हुए ,
अक्सर ये गीत गाते है 
कि तुम जियो हज़ारों साल 
और हर साल के दिन हो पचास हज़ार 
आप अपने शुभचिंतकों का करते शुक्रिया है 
पर क्या आपने कभी गौर किया है 
कि गलती से भी ऊपरवाला ये भूल कर ले 
आपके दोस्तों की दुआ कबूल कर ले 
तो आपकी क्या हालत होगी 
हज़ारों साल की उम्र ,कितनी मुसीबत होगी 
पचास हज़ार दिन का सिर्फ एक साल भर 
होता है तीनसौ पेंसठ दिनों के ,
एक सौ सेतींस वर्षों के बराबर 
और ऐसे हज़ारों वर्ष जीने की कल्पना मात्र ही,
मन में सिहरन भर देती है 
बैचैन और परेशान कर देती है 
आज जब सत्तर या अस्सी तक की उम्र में ही,
शरीर शिथिल है ,बीमारियां घेरे है 
हमारे अपने ही ,पूछते नहीं,मुंह फेरे है 
हम उनके लिए बन जाते भार  है 
तो ऐसे हालात मे जीना ,कितना दुश्वार है
परेशानियां सहना है ,घुटना तिल तिल है 
अरे ऐसे जीवन का तो पचास हज़ार दिन वाला ,
एक साल भी जीना मुश्किल है 
जिसे शुभकामना समझ रहे आप है 
अरे इतने लम्बे जीवन की दुआ ,
वरदान नहीं  एक अभिशाप है 
हम तो बस ये चाहते है ,
जब तक जिये स्वस्थ रहें
खुश और मस्त रहे 
स्वाभिमान से रहे तने 
किसी पर बोझ न बने 
हमेशा छोटों का प्यार ,
और बड़ों का आशिर्वाद रहे बना 
बस जन्मदिन पर चाहिए ,
सब की ये शुभकामना 

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 
  

गुरुवार, 8 दिसंबर 2016

नोटबंदी या अनुशासनपर्व


नोटबंदी  या अनुशासनपर्व

जब से आयी है ये नोटबन्दी
फिजूल खर्चों पर ,लग गयी है पाबन्दी
हम सबकी होती ,ऐसी ही आदत है
कि हमारे पास होती ,पैसों की जितनी भी सहूलियत है
हम उतना ही खर्च करते है खुले हाथ से
कभी मुफलिसी से,कभी शाही अंदाज से
पर जब से हुई है नोटबन्दी
पड़ने लगी है नए नोटों की तंगी
बैंकों के आगे ,लगने लगी है कतारें लम्बी
थोड़ा सा ही पैसा ,मुश्किल से हाथ आता है
जिसको जितना मिलता है,वो उसी से काम चलाता है
पैसों की तंगी ने एक काम बड़ा ठीक किया है
हमने सीमित साधनो से,घर चलाना सीख लिया है
अब हमें मालूम पड़ने लगा है ,भाव दाल और आटे का
डोमिनो का पिज़ा भूल ,स्वाद लेते है मूली के परांठे का
मजबूरी में ही सही ,लोगो की  समझदारी बढ़ गयी है
शादी की दावतों में,पकवानों की फेहरिश्त सिकुड़ गयी है
दिखावे और लोकलाज के बन्धन हट गए है
कई शादियों में तो बराती ,चाय और लड्डू  से ही निपट गए है
पत्नी की साड़ियों में   छुपा हुआ धन हो गया है उजागर
घर की आर्थिक स्थिति गयी है सुधर
भले ही बैंकों की कतारों में खड़े रहने का सितम हुआ है
पर हिसाब लगा कर देखो ,
पिछले माह घर का खर्च कितना कम हुआ है
भले ही हम हुए है थोड़े से परेशान
पर हमारे खर्चों पर लग गयी है लगाम
हालांकि मन को थोड़ी खली है
पर हमने मितव्ययिता सीख ली है
मोदीजी ,हमें आपके इस कठिन फैसले पर गर्व है
ये नोटबन्दी नहीं,   हमारे देश  और घर घर की ,
अर्थव्यवस्था का,अनुशासन पर्व है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

बुधवार, 30 नवंबर 2016

असमंजस

 
असमंजस 

प्रेमिका ने प्रेमी से फोन पर कहा 
प्रियतम ,तुम्हारे बिन न जाता रहा 
मै तुम्हे बहुत प्यार करती हूँ,
 तुम्हे दिलोजान से चाहती हूँ 
तुम्हारे हर कृत्य  में ,तुम्हारी ,
सहभागिनी होना चाहती हूँ 
इसलिए मेरे सनम 
मेरे साथ बाँट लो अपनी ख़ुशी और गम 
अगर तुम हंस रहे हो ,
तो अपनी थोड़ी सी मुस्कराहट देदो 
अगर उदास हो तो गमो की आहट दे दो 
अपने कुछ आंसू,मेरे गालों पर भी बहने दो
मुझे हमेशा अपना सहभागी रहने दो  
अगर कुछ खा रहे तो ,
उसका स्वाद ,मुझे भी चखादो 
अगर कुछ पी रहे तो थोड़ी ,
मुझे भी पिला दो 
हम दो जिस्म है मगर रहे एक दिल 
अपने हर काम में करलो मुझे शामिल 
प्रेमिका की बात सुन प्रेमी सकपकाया 
उसकी समझ में कुछ नहीं आया 
बोला यार ,मैं क्या बताऊँ,
बड़े असमंजस में पड़ा हूँ 
बताओ क्या करू,
इस समय मैं टॉयलेट में खड़ा हूँ 

घोटू 

रिश्तों में अदाकारी कभी अच्छी नहीं होती...


हम भूल गये

                
                हम भूल गये  
                         
हो गए आधुनिक हम इतने,संस्कृती पुरानी भूल गए 
मिनरल वाटर के चक्कर में,गंगा का पानी  भूल  गए 
पिज़ा बर्गर पर दिल आया ,ठुकराया पुवे ,पकोड़ी को,
यूं पोपकोर्न से प्यार हुआ ,कि हम  गुड़धानी  भूल गए 
एकल बच्चे के  फैशन में, हम भूल गए  रक्षाबन्धन ,
वो भाई बहन का मधुर प्यार ,और छेड़ाखानी भूल गए 
वो रिश्ते चाचा ,भुआ के, हर एक को आज नसीब नहीं,
परिवारनियोजन के मारे , मौसी  और मामी भूल गए 
मोबाइल में उलझे  रहते,मिलते है तो बस 'हाय 'हेल्लो',
रिश्ते  नाते ,भाईचारा ,वो प्रीत  निभानी  भूल गए 
हुंटा ,अद्धा, ढईया ,पोना ,ये सभी पहाड़े ,पहाड़ हुए,
केल्क्युलेटर के चक्कर में ,वो गणित पुरानी भूल गए 
जीवन की क्रिया बदल गयी,बदलाव हुआ दिनचर्या में,
रातों जगते,दिन में सोते वो सुबह सुहानी भूल गए 
कोड़ी कोड़ी जोड़ी माया ,ना कभी किसी के साथ गयी ,
बस चार दिनों की होती है, जीवन की कहानी भूल गए 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'   

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