छुपा चंद्रमुख ,ओढ़े कम्बल ,कंचन बदन शाल में लिपटा
ना लहराते खुले केश दल ,पूरा तन आलस में सिमटा
तरस गए है दृग दर्शन को ,सौष्ठव लिए हुए उस तन के
मुरझाये से ,दबे पड़े है , विकसित पुष्प ,सभी यौवन के
बुझा बुझा सा लगता सूरज ,सभी प्रेरणा लुप्त हुई है
सपने भी अब शरमाते है ,और भावना सुप्त हुई है
सभी तरफ छा रहा धुंधलका ,डाला कोहरे ने डेरा है
मन ना करता कुछ करने को ,ऐसा आलस ने घेरा है
आह ,वाष्प बन मुख से निकले,बातें नहीं,उबासी आती
हुई पकड़ ऊँगली की ढीली ,कलम ठीक से लिख ना पाती
ठिठुर गए उदगार,शब्द भी, सिहर सिहर आते है बाहर
सर्दी में मेरी कविताये,दुबकी है कम्बल के अंदर
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
कृपया अपने बहुमूल्य टिप्पणी के माध्यम से उत्साहवर्धन एवं मार्गदर्शन करें ।
"काव्य का संसार" की ओर से अग्रिम धन्यवाद ।