मुहावरों की महिमा
ये मुहावरे, बड़े बावरे, इनका खेल समझ ना आता
किंतु रोजमर्रा के जीवन ,से है इनका गहरा नाता
अगर दाल में कुछ काला है तो वह साफ नजर आता है
थोड़ी सी असावधानी से ,गुड़ का गोबर बन जाता है
हींग लगे ना लगे फिटकरी, फिर भी रंग आता है चोखा
लेकिन टेढ़ी खीर हमेशा, हमको दे जाती है धोखा
कोई छीछालेदर करता ,कोई रायता फैलाता है
बात न कुछ होती राई का लेकिन पर्वत बन जाता है
कई बार हम पहाड़ खोदते, चूहा मगर निकल आता है
चूहे को चिन्दी मिल जाती, तो बजाज वो बन जाता है
नहीं बाप ने मारा मेंढक, बेटा तीरंदाज बन गया
कल खेला करता रुपयों से,वह ठन ठन गोपाल बन गया
कोई आंख में धूल झोंकता, कोई खिचड़ी अलग पकाता
और अकल के मारा कोई, भैंस के आगे बीन बजाता
किस्मतवाले कुछ अंधों के हाथ बटेर जब लग जातीहै
अंधा अगर रेवड़ी बाटे ,अपनों को ही मिल पाती है
कुछ अपने मुंह मियां मिट्ठू बनते, लठ्ठ धूल में मारे
कोई अपने पांव कुल्हाड़ी मारे अपना काम बिगाड़े
कोई उंगली पकड़ पकड़ कर पहुंचे तलक पहुंच जाते हैं
कोई छेद उसी में करते ,जिस थाली में वो खाते हैं
अगर ओखली में सिर डाला, मूसल से फिर डरा जाता
कई बार कंगाली में भी ,आटा है गीला हो जाता
कहीं छलकती अधजल गगरी कहीं भरे गागर में सागर
कोई चिकना घड़ा, डूबता कोई पानी में चुल्लू भर
कोई टस से मस ना होता ,कोई झक्क मारता रहता
कोई ढोल की पोल छुपाता, तिल का ताड़ बनाता रहता
दाल किसी की ना गलती है, कोई है थाली का बैंगन
और किसी की पांचो उंगली ,घी में ही रहती है हरदम
कोई नाकों चने चबाता, कोई होता नौ दो ग्यारह
पापड़ कई बेलने पड़ते, तब ही होती है पौबारह
कोई मक्खी मारा करता, कोई भीगी बिल्ली रहता
कोई धोबी के कुत्ते सा ,घर का नहीं घाट का रहता
नौ मन तेल न राधा नाचे,नाच न जाने , टेढ़ा आंगन
हरदम रहे मस्त मौला जो ,भादौ हरा न सूखे सावन बरसो रखो भोगली में पर,सीधी ना हो पूंछ श्वान की
अक्सर दांत गिने ना जाते,बछिया हो जो अगर दान की छोटी-छोटी बात भले पर,गागर में सागर भर आता
ये मुहावरे बड़े बावरे ,इनका खेल समझ ना आता
मदन मोहन बाहेती घोटू
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