बुढ़ापा अब इस तरह से कट रहा है
एक जगह पर ध्यान केंद्रित नहीं रहता
बादलों सा भटक ,मन, दिन-रात रहता
नाचती यादें पुरानी ,नयन आगे
प्यार को रहते तरसते, हम अभागे
मोह का अंधकार सारा छट रहा है
बुढापा अब इस तरह से कट रहा है
सोते-सोते , जाग कर उठ बैठते हैं
न जाने क्या सोचते, फिर लेटते हैं
उचटी उचटी नींद भी है,नहीं आती
सवेरे की प्रतीक्षा, लंबी सताती
प्रभु सिमरन, ध्यान थोड़ा बंट रहा है
बुढ़ापा अब इस तरह से कट रहा है
कोड़ी कोड़ी माया जोड़ी आना पाई
उम्र भर की बचाई, सारी कमाई
बाद में बंटवारे को सब ही लड़ेंगे
अभी दोगे बांट,तो सेवा करेंगे
सोच यह मन करता बस खटपट रहा है
बुढापा अब इस तरह से कट रहा है
बची तन में नहीं फुर्ती, जोश बाकी
मगर जीते ,सांस लेते, होश बाकी
भेषजों के भरोसे चलता गुजारा
रुग्ण है मन और तन कमजोर सारा
उम्र का दिन ,रोज ही तो घट रहा है
बुढ़ापा अब इस तरह से कट रहा है
उपेक्षा में अपेक्षा में तब्दील अब है
बोझ सा हमको समझते लोग सब हैं
प्यार की दो बात कोई भी न करता
यह तो वो ही जानता, जिस पर गुजरता
राम का ही नाम अब मन रट रहा है
बुढ़ापा अब इस तरह से कट रहा है
मदन मोहन बाहेती घोटू
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