चूक
जिंदगी की राह में ,सुख भी मिले ,दुःख भी मिले,
कहीं पर राधा मिली तो कहीं पर रुक्मण मिली
बालपन का प्यार निश्छल ,भुलाना मुझको पड़ा ,
उम्र भर जो नहीं सुलझी ,ऐसी एक उलझन मिली
मूक है वो बांसुरी अब. बिसुरती ,चुपचाप है ,
कभी जिसकी एक धुन पर ,नाचती थी गोपियाँ
बांसुरी के छिद्र पर थिरके,सुरीली तान दे,
नहीं फुरसत ,व्यस्त है अब सुदर्शन में उँगलियाँ
भुला दी वो कुञ्ज गलियां ,यमुना की कल कल मधुर ,
द्वारका के समंदर की ,बस गयी मन में लहर
द्वारका का धीश बन कर ,कन्हैया को क्या मिला ,
भूल यमुना का मधुर जल,पाया खारा समन्दर
जिंदगी भर रही मन में ,यही पीड़ा सालती ,
कौन सा मुंह ले मिलूंगा ,यशोदा,नंदलाल से
प्रेम राधा का भुलाया ,सखाओं की मित्रता,
भूल ऐसी किस तरह से ,हो गयी गोपाल से
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
बहुत ख़ूब ! सुन्दर रचना आदरणीय आभार "एकलव्य"
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