बूढ़ों के जज्बात
क्या बूढ़ों के मन में कुछ जज्बात नहीं रहते
ये सच है कि साथ समय के ,ढल जाता तन है
पर वो ही आशिक़ मिजाज सा रहता ये मन है
भले जवानी के दिन वाला जोश नहीं रहता
लेकिन फिर भी देख हुस्न को होश नहीं रहता
मन रंगीन ,उमंगों से भर ,मचला करता है
जलवा अब भी हमें हुस्न का ,पगला करता है
लेकिन कुछ कर सकने के ,हालात नहीं रहते
क्या बूढ़ों के मन में कुछ जज्बात नहीं रहते
हाँ,थोड़ी कम हो जाती पर भूख तो लगती है
आँखें अब भी ,हुस्न दिखे,चोरी से तकती है
ये सच है कि ना रहता यौवन का जलवा है
साथ समय के ,सिक कर इंसां ,बनता हलवा है
पर कोई ना चखता ,मन को बात सालती है
बुढ़ियायें तक भी न हमें पर घास डालती है
वो रंगीन मिजाजी के दिन रात नहीं रहते
क्या बूढ़ों के मन में कुछ जज्बात नहीं रहते
सर पर अगर सफेदी छाये ,तो क्या होता है
आँख अगर धुंधली हो जाए ,तो क्या होता है
भले नहीं तन का मिजाज अब पहले जैसा है
पर दिल की रंगीनी तो रंगीन हमेशा है
देख हुस्न को अब भी यह मन उछला करता है
लेकिन अंकलजी कहलाना ,पगला करता है
अच्छे दिन भी ,ज्यादा दिन तक साथ नहीं रहते
क्या बूढ़ों के मन में कुछ जज्बात नहीं रहते
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
कृपया अपने बहुमूल्य टिप्पणी के माध्यम से उत्साहवर्धन एवं मार्गदर्शन करें ।
"काव्य का संसार" की ओर से अग्रिम धन्यवाद ।