नदिया यूं बोली सागर से
तुम्हारा विशाल वक्षस्थल ,देख उछलती लहरें मन में
इतनी थी मैं हुई बावरी, दौड़ी आयी तुमसे मिलने
तुम्हारा पहला चुम्बन जब ,लगा मुझे कुछ खारा खारा
मैंने सोचा ,हो जाओगे ,मीठे हो जब मिलन हमारा
अपना सब मीठापन लेकर ,रोज आई मैं पास तुम्हारे
लेकिन तुम बिलकुल ना बदले ,रहे वही खारे के खारे
तुमने तप कर ,बादल बन कर ,उड़ा दिया मीठापन सारा
जन और जगती के जीवन हित ,देखा जब ये त्याग तुम्हारा
तमने अपना स्वार्थ न देखा ,किया समर्पित अपना जीवन
देख परोपकारी अंतर्मन ,भूल गयी मैं सब खारापन
इसीलिए बस दौड़ी दौड़ी ,तुमसे मिलने भाग रही हूँ
पूर्ण रूप से ,तुम्हे समर्पित , निज मीठापन त्याग रही हूँ
घोटू
लाज़वाब पंक्तियाँ ,सुन्दर ,आभार। आभार ''एकलव्य''
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना, त्याग की सीख देती हुई।
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