खैर मना बददुआ नहीं दी
तूने मुझे दुखी करने में ,छोड़ी कोई कसर नहीं थी
मैने तुझको दुआ नहीं दी,खैर मना बददुआ नहीं दी
ग्रहण काल में उगता सूरज ,पड़ा ग्रहों पर मेरे भारी
तहस नहस घरबार हो गया ,ऐसी भड़की थी चिंगारी
कोई को कुछ नहीं समझती ,इतना तुझमे चढ़ा अहम था
सबसे समझदार तू जग में ,तेरे मन में यही बहम था
तेरी एक एक हरकत में ,नज़र छिछोरापन आता था
पराकाष्ठा निचलेपन की ,काम तेरा हर दिखलाता था
तेरे जैसी आत्मकेन्दित , देखी मैंने कहीं नहीं थी
मैंने तुझको दुआ नहीं दी,खैर मना बददुआ नहीं दी
मैंने सोचा साथ समय के ,सोच तुम्हारी सुधर जायेगी
आज नहीं तो शायद कल तक तुममे थोड़ी अकल आएगी
इतनी कटुता और कुटिलता ,तेरे मन में भरी हुई है
रिश्ते नाते अपनेपन की ,सभी भावना मरी हुई है
चेहरे पर मुस्कान ओढ़ कर बातें करती ओछी ओछी
हम भोले थे समझ न पाये ,तेरी चालें ,समझी ,सोची
पल पल पीड़ा और वेदना ,आंसू पिये और सही थी
मैंने तुझको दुआ नहीं दी ,खैर मना बददुआ नहीं दी
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
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