माँ और बच्चे
मैं रोज देखता सुबह सुबह ,
माँएं ,अन संवरी ,बासी सी
कंधे ,बच्चों का बस्ता ले ,
कुछ लेती हुई उबासी सी
कुछ मना रही वो कुछ खाले ,
कुछ मुंह में केला ठूंस रही
तुम ने रखली ना सब किताब,
कुछ होमवर्क का पूछ रही
अपनी माँ की ऊँगली थामे ,
अलसाया बच्चा रहा दौड़
है हॉर्न बजाती स्कूल बस ,
वो कहीं उसको जाय छोड़
भारी सा बस्ता उसे थमा,
वह उसे चढ़ाती है बस पर
निश्चिन्त भाव से फिर वापस ,
वो घर लौटा करती हंस कर
दोपहरी में फिर जब बस के ,
आने का होता है टाइम
आकुल व्याकुल सी बच्चे का,
वो इन्तजार करती हर क्षण
बस से ज्यों ही उतरे बच्चा ,
ले लेती उसका बेग थाम
स्कूल की सब बातें सुनती ,
चलती धीमे से बांह थाम
माँ और बच्चों की दिनचर्या ,
मैं देखा करता ,रोज रोज
अनजाने ही मेरे मन में,
उठने लग जाता एक सोच
बच्चों का बोझ उठा पाते ,
माँ बाप सिरफ़ बस तक केवल
पड़ता है बोझ उठाना खुद ,
ही बच्चों को है जीवन भर
अक्षम होंगे जब मात पिता ,
जब ऐसे भी दिन आयेंगे
बच्चे उतने अपनेपन से ,
क्या उनका बोझ उठायेंगे ?
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
मैं रोज देखता सुबह सुबह ,
माँएं ,अन संवरी ,बासी सी
कंधे ,बच्चों का बस्ता ले ,
कुछ लेती हुई उबासी सी
कुछ मना रही वो कुछ खाले ,
कुछ मुंह में केला ठूंस रही
तुम ने रखली ना सब किताब,
कुछ होमवर्क का पूछ रही
अपनी माँ की ऊँगली थामे ,
अलसाया बच्चा रहा दौड़
है हॉर्न बजाती स्कूल बस ,
वो कहीं उसको जाय छोड़
भारी सा बस्ता उसे थमा,
वह उसे चढ़ाती है बस पर
निश्चिन्त भाव से फिर वापस ,
वो घर लौटा करती हंस कर
दोपहरी में फिर जब बस के ,
आने का होता है टाइम
आकुल व्याकुल सी बच्चे का,
वो इन्तजार करती हर क्षण
बस से ज्यों ही उतरे बच्चा ,
ले लेती उसका बेग थाम
स्कूल की सब बातें सुनती ,
चलती धीमे से बांह थाम
माँ और बच्चों की दिनचर्या ,
मैं देखा करता ,रोज रोज
अनजाने ही मेरे मन में,
उठने लग जाता एक सोच
बच्चों का बोझ उठा पाते ,
माँ बाप सिरफ़ बस तक केवल
पड़ता है बोझ उठाना खुद ,
ही बच्चों को है जीवन भर
अक्षम होंगे जब मात पिता ,
जब ऐसे भी दिन आयेंगे
बच्चे उतने अपनेपन से ,
क्या उनका बोझ उठायेंगे ?
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
कृपया अपने बहुमूल्य टिप्पणी के माध्यम से उत्साहवर्धन एवं मार्गदर्शन करें ।
"काव्य का संसार" की ओर से अग्रिम धन्यवाद ।