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रविवार, 16 फ़रवरी 2014

बसन्ती ऋतू आ गयी

       बसन्ती ऋतू आ गयी

सर्दियों के सितम से हालत ये थे,
                 तन बदन था खुश्क,गायब थी लुनाई
ढके रहना ,लबादों से लदे  दिन भर ,
                 रात पड़ते दुबक जाना ,ले   रजाई
शाल ,कार्डिगन,इनर और जाने क्या क्या,
                  हुस्न की दौलत छिपी थी,लगा ताले
बसन्ती ऋतू आयी ,ताले खुल गए सब ,
                   खुली गंगा बह रही है,हम नहा ले
आम्र तरु के बौर ,फल बनने लगे है,
                   गेंहूं की बाली में दाने भर रहे है
लहलहाती स्वर्णवर्णी सरस सरसों ,
                    रसिक भँवरे,मधुर गुंजन कर रहे है
 पल्ल्वित नव पल्लवों से तरु तरुण है ,
                     कूक कोयल की बहुत मन को लुभाती
तन सिहरता ,मन मचलता ,चूमती जब,
                      बसन्ती  ,मादक बयारें ,मदमदाती
इस तरह अंगड़ाइयां ऋतू ले रही है ,
                       हमें भी अंगड़ाई  आने लग गयी है
फाग ने आ ,आग ऐसी लगा दी ,
                        पिय मिलन की आस मन में जग गयी है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'                     

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