बसन्ती ऋतू आ गयी
सर्दियों के सितम से हालत ये थे,
तन बदन था खुश्क,गायब थी लुनाई
ढके रहना ,लबादों से लदे दिन भर ,
रात पड़ते दुबक जाना ,ले रजाई
शाल ,कार्डिगन,इनर और जाने क्या क्या,
हुस्न की दौलत छिपी थी,लगा ताले
बसन्ती ऋतू आयी ,ताले खुल गए सब ,
खुली गंगा बह रही है,हम नहा ले
आम्र तरु के बौर ,फल बनने लगे है,
गेंहूं की बाली में दाने भर रहे है
लहलहाती स्वर्णवर्णी सरस सरसों ,
रसिक भँवरे,मधुर गुंजन कर रहे है
पल्ल्वित नव पल्लवों से तरु तरुण है ,
कूक कोयल की बहुत मन को लुभाती
तन सिहरता ,मन मचलता ,चूमती जब,
बसन्ती ,मादक बयारें ,मदमदाती
इस तरह अंगड़ाइयां ऋतू ले रही है ,
हमें भी अंगड़ाई आने लग गयी है
फाग ने आ ,आग ऐसी लगा दी ,
पिय मिलन की आस मन में जग गयी है
मदन मोहन बाहेती 'घोटू'
सर्दियों के सितम से हालत ये थे,
तन बदन था खुश्क,गायब थी लुनाई
ढके रहना ,लबादों से लदे दिन भर ,
रात पड़ते दुबक जाना ,ले रजाई
शाल ,कार्डिगन,इनर और जाने क्या क्या,
हुस्न की दौलत छिपी थी,लगा ताले
बसन्ती ऋतू आयी ,ताले खुल गए सब ,
खुली गंगा बह रही है,हम नहा ले
आम्र तरु के बौर ,फल बनने लगे है,
गेंहूं की बाली में दाने भर रहे है
लहलहाती स्वर्णवर्णी सरस सरसों ,
रसिक भँवरे,मधुर गुंजन कर रहे है
पल्ल्वित नव पल्लवों से तरु तरुण है ,
कूक कोयल की बहुत मन को लुभाती
तन सिहरता ,मन मचलता ,चूमती जब,
बसन्ती ,मादक बयारें ,मदमदाती
इस तरह अंगड़ाइयां ऋतू ले रही है ,
हमें भी अंगड़ाई आने लग गयी है
फाग ने आ ,आग ऐसी लगा दी ,
पिय मिलन की आस मन में जग गयी है
मदन मोहन बाहेती 'घोटू'
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