मन की पीर
जब नींद रात को ना आती
हम सोते करवट बदल बदल
बेचैन हुए लेटे रहते
हैं कभी इधर तो कभी उधर
इतना छाता एकाकीपन
सपने भी तो आते है कम
क्योंकि इतनी ना उमर बची,
उनको पूरा कर पाएं हम
दिल लगे पहाड़ों से लंबे
मुश्किल से ही कट पाते
घबराहट प्रकट नहीं करते,
हम फिर भी रहते मुस्काते
लेकिन इन मुस्कानों पीछे
है दर्द न दिखता अंदर का
लगता विशाल, पी ना पाते
खारा जल भरा समुंदर का
मन की पीड़ायें छुपी हुई
लेने लगती जब अंगड़ाई
रह रह कर याद हमे आती,
कुछ अपनों की ही रुसवाई
नयनों में बस जाता सावन
और झर झर आंसू झरते हैं
बस इन्हीं परिस्थितियों में हम
नित जीते हैं ,नित मरते है
मदन मोहन बाहेती घोटू
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