पता ही न लगा
बचपन की खींची ,
आड़ी तिरछी रेखाएं ,
जाने कब अक्षर बन गई
और अक्षरों का जमावड़ा ,
जाने कब कविता बन गया ,
पता ही न लगा
बचपन की आंख मिचोली ,
बड़े होते होते
कब आंखों का मिलन
और प्यार में परिवर्तित हो गई ,
पता ही न लगा
बालपने की चंचलता,
कब जवानी की उद्दंडता मे बदल गई
और पंख लगा कर कब समय
बुढ़ापे की कगार पर ले आया,
पता ही न लगा
रोज-रोज ,
गृहस्थी की उलझनों में उलझे हुए हम,
उन्हे सुलझाते सुलझाते,
अपने लिए कुछ भी नहीं कर पाए,
और विदा की बेला आ गई,
पता ही न लगा
देखते ही देखते,
हमारी मानसिकता
और लोगों के व्यवहार में
कितना परिवर्तन आ गया,
पता ही न लगा
मदन मोहन बाहेती घोटू
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