सास बहू संवाद
सास बोली बहू से कि ,तू नई है
बुरे अच्छे का पता तुझको नहीं है
जो भी करती आई मैं ,वो ही सहीहै
मुझसे अच्छा ,घर में कोई भी नहीं है
मुझको मालुम ,घर को कैसे सजाते है
मुझको मालुम,पैसा कैसे बचाते है
तू नयी ,नौसिखिया ,तूने न जाना
कितना मुश्किल ,सफलता से घर चलाना
जवानी के गर्व में इठला न किंचित
मोहल्ले के सभी है मेरे परिचित
बात मेरी ,गाँव सारा मानता है
तुझको मुश्किल से ही कोई जानता है
मैं बड़ी हूँ ,तुझे यदि ना भान होगा
सासपन मेरा यूं ही कुरबान होगा
चुप न रह पाती भले आराम में हूँ
ढूंढती कमियां तेरे हर काम में हूँ
कहीं ऐसा न हो तू गर्वान्वित हो
लोगों का दिल जीत ले,लाभान्वित हो
भूल मत ,मैंने बहू तुझको बनाया
भूल मत ,सर पर तुझे मैंने चढ़ाया
क्या पता था ,बजा तू यूं बीन देगी
मुझसे ही तू मेरा बेटा छीन लेगी
इसलिए सुन ,बढ़ न तू मुझसे अगाडी
तू अनाडी ,और पुरानी मैं खिलाड़ी
अनुभव और ज्ञान का अहसास हूँ मैं
बात मेरी मान ,तेरी सास हूँ मैं
बहू बोली ,सास बलिहारी तुम्हारी
तुम्हारे पद चिन्ह पर चल रही सारी
सिर्फ मेरी सोच में है कुछ समर्पण
पाएं घरवाले ख़ुशी ,कर रही अर्पण
तन और मन से ,जो भी मुझसे बन सका है
फिर भी माथा आपका क्यों ठनकता है
भूल सकता कौन है तुम्हारी हस्ती
बहुत दिन तक चलाई तुमने गृहस्थी
थक गयी होगी ,जरा आराम देखो
शांति से मैं कर रही वो काम देखो
लालसा सत्ता की है जो भी हटा दो
मन में लालच है अगर ,उसको घटा दो
आपने की सेवा ,पाया खूब मेवा
छोड़ गृहसेवा ,करो अब प्रभु सेवा
घोटू
सास बोली बहू से कि ,तू नई है
बुरे अच्छे का पता तुझको नहीं है
जो भी करती आई मैं ,वो ही सहीहै
मुझसे अच्छा ,घर में कोई भी नहीं है
मुझको मालुम ,घर को कैसे सजाते है
मुझको मालुम,पैसा कैसे बचाते है
तू नयी ,नौसिखिया ,तूने न जाना
कितना मुश्किल ,सफलता से घर चलाना
जवानी के गर्व में इठला न किंचित
मोहल्ले के सभी है मेरे परिचित
बात मेरी ,गाँव सारा मानता है
तुझको मुश्किल से ही कोई जानता है
मैं बड़ी हूँ ,तुझे यदि ना भान होगा
सासपन मेरा यूं ही कुरबान होगा
चुप न रह पाती भले आराम में हूँ
ढूंढती कमियां तेरे हर काम में हूँ
कहीं ऐसा न हो तू गर्वान्वित हो
लोगों का दिल जीत ले,लाभान्वित हो
भूल मत ,मैंने बहू तुझको बनाया
भूल मत ,सर पर तुझे मैंने चढ़ाया
क्या पता था ,बजा तू यूं बीन देगी
मुझसे ही तू मेरा बेटा छीन लेगी
इसलिए सुन ,बढ़ न तू मुझसे अगाडी
तू अनाडी ,और पुरानी मैं खिलाड़ी
अनुभव और ज्ञान का अहसास हूँ मैं
बात मेरी मान ,तेरी सास हूँ मैं
बहू बोली ,सास बलिहारी तुम्हारी
तुम्हारे पद चिन्ह पर चल रही सारी
सिर्फ मेरी सोच में है कुछ समर्पण
पाएं घरवाले ख़ुशी ,कर रही अर्पण
तन और मन से ,जो भी मुझसे बन सका है
फिर भी माथा आपका क्यों ठनकता है
भूल सकता कौन है तुम्हारी हस्ती
बहुत दिन तक चलाई तुमने गृहस्थी
थक गयी होगी ,जरा आराम देखो
शांति से मैं कर रही वो काम देखो
लालसा सत्ता की है जो भी हटा दो
मन में लालच है अगर ,उसको घटा दो
आपने की सेवा ,पाया खूब मेवा
छोड़ गृहसेवा ,करो अब प्रभु सेवा
घोटू
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
कृपया अपने बहुमूल्य टिप्पणी के माध्यम से उत्साहवर्धन एवं मार्गदर्शन करें ।
"काव्य का संसार" की ओर से अग्रिम धन्यवाद ।