दास्ताने मजबूरी
कभी हम में भी तपिश थी ,आग थी,उन्माद था ,
गए अब वो दिन गुजर ,पर भूल हम पाते नहीं
तमन्नाओं ने बनाया इस कदर है बावला ,
मचलता ही रहता है मन ,पर हम समझाते नहीं
जब महकते फूल दिखते या चटकती सी कली,
ये निगोड़े नयन खुद पे ,काबू रख पाते नहीं
हमारी मजबूरियों की इतनी सी है दास्तां ,
चाहते है चाँद ,जुगनू तक पकड़ पाते नहीं
घोटू
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