डिजिटल जीवन
एक हसीना की दो आँखों के संग आँखे चार करो,
लेकर फेरे सात बाँध लो ,तुम रिश्ता जीवन भर का
सात आठ दिन की मस्ती फिर ,पड़ता बोझ गृहस्थी का ,
बड़ा बुरा होता है पड़ना ,ननयानू के चक्कर का
दूध छटी का याद आ जाता,बजते चेहरे पर बारह,
चार दिनों की रात चांदनी ,फिर अंधियारा पाओगे
मुरझा जाता साथ समय के ,चाँद चौदवीं सा चेहरा,
पडो न तीन और तेरह में,मुश्किल में पड़ जाओगे
हार जीत में अंतर होता ,बस उन्नीस बीस का है,
किन्तु जीतने वाले के,हरदम होते है पौबारह
नहीं किसी से तीन पांच में ,उलझाओ तुम अपने को ,
अच्छा सा मौक़ा देखो और हो जाओ नौ दो ग्यारह
छप्पन भोग कभी चढ़ते है,चलती छप्पन छुरी कभी,
होते सोलह संस्कार है ,गुण छत्तीस मिला करते
कोई कहे 'साठा को पाठा 'कोई पागल सठियाया ,
एक जीभ रहती है कायम ,बत्तीस दांत हिला करते
करते दो दो हाथ हमेशा,हम बचपन से पचपन तक ,
एक एक जब मिल जाते है ,तो है ग्यारह हो जाते
आज जिंदगी हुई डिजिटल ,सारा खेल डिजिट का है,
यह जीवन का अंकगणित हम,बिलकुल नहीं समझ पाते
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
कृपया अपने बहुमूल्य टिप्पणी के माध्यम से उत्साहवर्धन एवं मार्गदर्शन करें ।
"काव्य का संसार" की ओर से अग्रिम धन्यवाद ।