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सोमवार, 23 जून 2014

कांच के टुकड़े

        कांच के टुकड़े

काँचों से मेरी दोस्ती है पुरानी
बचपन में कांच की बोतल से दूध पिया ,
कांच के गिलास से ही पिया  था पानी
वो आइना भी कांच ही था जिसमे पहली बार,
खुद को देख कर अपनी सूरत थी पहचानी
जब उम्र बढ़ी तो इन्ही आइनों में,
अपनी भीगती मसों  को निहारा था
और मदिरा का पहला पहला जाम,
इन्ही कांच के प्यालों में ढाला  था
इन्ही आइनों को देख कर ,
मैं सजता और संवरता था
और खुद को निहार कर,
अपने आप से कितना प्यार करता था
पर जब इन आइनों ने ,
मुझे दिखाए मेरे सफ़ेद होते हुए केश
 और चेहरे की उभरती हुई झुर्रियां 
तो देखकर ये परिवेश
तो जिंदगी लगने लगी बेमायने
और हमने तोड़ दिए
सभी गिलास,बोतलें और आईने
कुछ  पुराने दोस्त ,जब जिंदगी की ,
हक़ीक़त से वाकिफ कराते है
और गुस्से में ये ,छोड़ दिए या तोड़ दिए जाते है
तो इनके हरेक टुकड़े में भी,
आपका असली रूप नज़र आने लगता है
और जिंदगी की हक़ीक़त की तरह ,
हर टुकड़ा चुभने लगता है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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