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मंगलवार, 4 अक्टूबर 2011

दशरथ का वनवास

दशरथ का वनवास
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हे राम तुम्हारे नाम किया ,मेने निज राज पाट सारा
तुमने पत्नी के कहने पर ,वनवास मिझे क्यों दे डाला
  त्रेता में पत्नी कहा मान, मैंने तुमको वन भेजा था
पर पुत्र वियोग कष्टप्रद था,मेरा फट गया कलेजा था
मै क्या करता मजबूरी थी,रघुकुल का मान बचाना था
जो था गलती से कभी दिया,मुझको वो वचन निभाना था
ये सच है मैंने तुम्हारा,सीता का ह्रदय दुखाया था
पर ये करके फिर मै जिन्दा,क्या दो दिन भी रह पाया था
उस युग का बदला इस युग में,ये न्याय तुम्हारा है न्यारा
हे राम तुम्हारे नाम किया ,मैंने निज राज पाट सारा
उस युग में तो सरवन कुमार,जैसे भी बेटे होते थे
करवाने तीरथ मात पिता ,को निजकंधों पर ढोते थे
थे पुरु से पुत्र ययाति के,दे दिया पिता को निज यौवन
तुम भी तो मेरा कहा मान,चौदह वर्षों भटके वन वन
माँ,पिता देवता तुल्य समझ ,पूजा करती थी संतानें
उनकी आज्ञा के पालन ही,कर्तव्य सदा जिनने जाने
उस युग का तो था चलन यही ,वह तो था त्रेता युग प्यारा
हे राम तुम्हारे नाम किया ,मैंने निज राज पाट सारा
तब वंचित मैंने तुम्हे किया,था राज पाट ,सिंहासन से
पर इस युग में ,मैंने तुमको ,दे दिया सभी कुछ निज मन से
ना मेरी तीन रानियाँ थी,ना ही थे चार चार बेटे
मेरी धन दौलत के वारिस ,तुम ही थे एक मात्र बेटे
तुम थे स्वच्छंद नहीं मैंने ,तुम पर कोई प्रतिबन्ध किया
तो फिर बतलाओ किस कारण,तुमने मुझको वनवास दिया
मेरी ही किस्मत थी खोटी,ये  दोष नहीं है तुम्हारा
हे राम तुम्हारे नाम किया ,मैंने निज राज पाट सारा
         मदन मोहन बहेती 'घोटू'



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