यह क्या हो गया देखते देखते
भरतिये में आदन रखकर उबलने वाली दाल को ,कब सीटी बजाने वाले कुकर से प्यार हो गया
पता ही न चला
लकड़ी से जलने वाले चूल्हेऔर कोयले की अंगीठी कब स्टोवऔर गैस के चूल्हे में बदल गई
पता ही न चला
मिट्टी के मटके में भरा हुआ पीने का पानी कब प्लास्टिक की बोतलों में समाने लगा
पता ही नहीं चला
हाथों से डुलने वाला पंखा कब छत पर चढ़ कर फरफराने लगा
पता ही नहीं चला
सुबह-सुबह अपनी चहचहाट से जगाने वाली गौरैया कहां गुम हो गई
पता ही न चला
दालान में बिछी कच्ची ईंटे ,लोगों का चरण स्पर्श करते करते कब की टाइलें बन गई
पता ही न लगा
झुनझुना बजा कर खुश होने वाले बच्चों के हाथ में कब मोबाइल आ गया
पता ही न चला
अपनी मंजिल पर पहुंचने के लिए लिफ्ट ने सीढ़िया चढ़ने की जरूरत ही हटा दी,
पता ही न चला
अमराई के फल और हवा देने वाले पेड़ ,कब चौखट और दरवाजे बन गए
पता ही न चला
कलकलाती नदियां , लहराते सरोवर और पनघट वाले मीठे पानी के कुवों से कब पानी रूठ गया
पता ही न चला
चिल्लर के खनखनाते सिक्कों ने कब चलना छोड़ दिया
पता ही न चला
प्रदूषण का रावण कब प्राणदायिनी हवा का अपहरण करके उसे ले गया
पता ही न चला
गिल्ली डंडा खेलने वाले हाथों में कब क्रिकेट का बल्ला आ गया,
पता ही न चला
अपनो का साथ छोड़ किसी अनजाने से आत्मिक रिश्ते कैसे जुड़ गए
पता ही न चला
लहराते घने केश , चिंताओ के बोझ से कब उड़ गए,
पता ही न चला
देखते ही देखते जवानी कब रेत की तरह मुट्ठी से फिसल गई
पता ही न चला
बचपन की किलकारियां कब बुढ़ापे की सिसकारियों में बदल गई
पता ही न चला
तीव्र गति से आई प्रगति ने हमारी क्या दुर्गती बना दी
पता ही न चला
मदन मोहन बाहेती घोटू
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
कृपया अपने बहुमूल्य टिप्पणी के माध्यम से उत्साहवर्धन एवं मार्गदर्शन करें ।
"काव्य का संसार" की ओर से अग्रिम धन्यवाद ।