सर्दी की दोपहरी -बूढ़ों का शगल
बैठ बाग़ में कुछ बूढ़े ,बतियाया करते है
कुछ बेंचों पर लेट धूप ही खाया करते है
सर्दी की दोपहरी में ये अक्सर होता है,
कितने दोस्त घूमते भी मिल जाया करते है
ऊनी टोपी से सर ढक और मफलर गर्दन पर,
स्वेटर कोट पहन कर तन गरमाया करते है
कुछ जेबों में काजू पिश्ता और बादामें भर ,
कोई मूंगफली,गजक रेवड़ी खाया करते है
चार पांच छह यारो की जब महफ़िल जमती है,
हंसी ठहाको से मंजर महकाया करते है
राजनीति,राहुल मोदी पर चर्चा होती है ,
सब ज्वलंत मुद्दों को वो सुलझाया करते है
कुछ दादा अपने पोते को फिसलन पट्टी पर ,
खेलाते है या झूला झुलवाया करते है
जली भुनी सी कुछ सासों के बहुओं से झगड़े ,
अपनी हमउम्रों आगे ,खुल जाया करते है
जैसे दिन ढलता है ठंडक बढ़ने लगती है ,
सूरज जैसे सब घर में छुप जाया करते है
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
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