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बुधवार, 17 अक्तूबर 2018

मुर्गा नंबर सात 

एक नामी स्कूल में ,पढ़ता है मेरा भतीजा 
एक दिन स्कूल  से लौटा तो था बहुत खीजा 
मैंने पूछा बेटे ,क्यों हो इतने नाराज़ 
क्या भूखे हो ,मम्मी ने टिफिन नहीं दिया था आज 
वो भन्ना कर बोला चाचू ,ये भी होती है कोई बात 
बड़ी शैतान होती है ये लड़कियों की जात 
मैं बोलै क्या बात हुई,जरा खुल कर बता 
किस लड़की ने तुझे दिया है सता 
वो बोला ' मैं खड़ा था ,कुछ लड़कियां आई 
कनखियों से मेरी ओर देखा और मुस्कराई 
आगे चल एक लड़की के हाथ से एक रुमाल गिरा 
मैंने देखा तो शराफत का मारा ,मैं सिरफिरा 
दौड़ कर गया और रुमाल उठाया 
और उन लड़कियों के हाथ में पकड़ाया 
पर किसी ने भी नहीं दिया मुझको धन्यवाद 
उल्टा सब की सब खिलखिला कर हंस पड़ी ,
और बोली,'आज का मुर्गा नंबर सात '
और उन्होंने जोर से लगाया कहकहा 
सच चाचू ,आजकल तो शराफत का जमाना ही नहीं रहा '
ये लड़किया ,जानबूझ कर रुमाल गिरा देती है 
और शरीफ लड़कों को सता कर ,मज़ा लेती है 
ये लड़कियां भी अजब होती है 
शैतान ,सब की सब होती है 
इन्हे समझना बड़ा मुश्किल काम है 
हम बोले हाँ बेटे ,इसी चक्कर में ,
हमने गुजार दी ,उमर तमाम है 

घोटू 
उस रावण को कब मारोगे 

यह पर्व विजयदशमी का है ,मन में क्या तनिक विचारोगे 
इस रावण को तो जला दिया उस रावण को कब मारोगे 

ये तो कागज का पुतला था ,बस घास फूस से भरा हुआ 
तुम इसे जला क्यों खुश होते ,यह पहले ही मरा  हुआ 
कह इसे प्रतीक बुराई का ,निज कमी छुपाते आये हो 
अपने मन का भूसा न जला ,तुम इसे जलाते  आये हो 
तुम क्यों न जलाया करते हो ,सारी बुराइयां जीवन की 
फैला समाज का दुराचार ,बिगड़ी प्रवर्तियाँ  जन जन की 
बारह महीने में जो फिर फिर ,दूनी हो बढ़ती जाती है 
हो जाती पुनः पुनः जीवित ,हर बार जलाई  जाती है 
हर बस्ती में क्यों बार बार ,रावण बढ़ते ही जाते है 
साधू का भेष दिखावे का ,और जनता को  भरमाते है 
इस बढ़ती हुई बुराई को , कब तक ,कैसे संहारोगे 
इस रावण को तो जला दिया उस रावण को कब मारोगे 

वो कई बुराई का पुतला ,थे उसके कंधे ,दस आनन
पर बुद्धिमान ,तपस्वी था ,पंडित और ज्ञानी वो रावण 
वह अहंकार का मारा था ,जिससे थी बुद्धि भ्रष्ट हुई 
सीता का हरण किया उसने ,सोने की लंका नष्ट हुई 
अब गाँव गाँव और गली गली ,कितने रावण विचरा करते 
उसने थी सीता एक हरी ,ये सदबुद्धि  सबकी हरते 
कुछ सत्तामद में चूर हुए ,कुछ व्यभिचार में डूबे है 
कुछ लूटे देश ,कोई अस्मत ,गंदे सबके मंसूबे है 
कुछ ईर्ष्या द्वेष भरे रावण ,तो कुछ पापी,भ्रष्टाचारी 
कुछ रावण भेदभाव वाले,कुछ गुंडे,लंफट ,व्यभिचारी 
असली त्योंहार तभी जब तुम ,इनसे  छुटकारा पा लोगे  
इस रावण को तो जला दिया ,उस रावण को कब मारोगे 

तुम नज़र उठा कर तो देखो ,कितने रावण है आसपास
एक रावण भूख गरीबी का ,देता है पीड़ा और त्रास  
एक रावण है मंहगाई का ,कुपोषण और कमजोरी का 
एक रावण चोरबाज़ारी का ,बेईमानी ,रिश्वत खोरी का 
एक रावण काट रहा वन को ,एक जहर हवा में घोल रहा 
एक छुपा बगल में छुरी रखे ,पर मीठा मीठा बोल रहा 
एक रावण काला धन लेकर ,पुष्पक में  जाता है विदेश 
एक जाति  ,धर्म में बाँट रहा ,करवाता दंगे और कलेश  
हिम्मत हनुमान सरीखी हो और तीखे तेवर लक्ष्मण से 
तब ही छुटकारा मुमकिन है ,इन दुष्ट बढ़ रहे  रावण से 
तुम इनका हनन करो , भारत माता  का क़र्ज़ उतारोगे 
इस रावण को तो जला दिया ,उस रावण को कब मारोगे 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू ' 
कोई मुझे कहे जो बूढा 


कोई मुझे कहे जो बूढा ,तो मुझको खलता है 
बाकी कोई कुछ भी कह दे,वो सब चलता है 

धुंधलाइ  आँखों ने आवारागर्दी  ना है छोड़ी 
देख हुस्न को उसके पीछे,भगती फिरे निगोड़ी 
मेरा मोम हृदय ,थोड़ी सी , गर्मी जब पाता  है  
रोको लाख ,नहीं रुकता है ,पिघल पिघल जाता है 
तन की सिगड़ी,मन का चूल्हा ,तो अब भी जलता है 
कोई मुझे कहे जो बूढा ,तो मुझको खलता है 

आँखों आगे ,छा जाती है ,कितनी यादें बिछड़ी 
स्वाद लगा मुख बिरयानी का ,खानी पड़ती खिचड़ी 
वो यौवन के ,मतवाले दिन ,फुर्र हो गए कबके 
पाचनशक्ती क्षीण ,लार पर देख जलेबी टपके 
मुश्किल से पर ,मन मसोस कर,रह जाना पड़ता है 
कोई मुझे ,कहे जो बूढा ,तो मुझको खलता है  

ढीला तन का पुर्जा पुर्जा ,घुटनो में पीड़ा है 
उछल कूद करता है फिर भी ,मन का यह कीड़ा है 
लाख करो कोशिश कहीं भी दाल नहीं गलती है 
कोई सुंदरी ,अंकल बोले ,तो मुझको खलती है 
आत्मनियंत्रण ,मन खो देता ,बड़ा मचलता है 
कोई मुझे कहे जो बूढा ,तो मुझको खलता है 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
 हौंसले -माँ के 

भले उम्र ने अपना असर दिखाया है 
जीर्ण और कमजोर हो गयी काया है 
श्वेत हुए सब केश ,बदन है  झुर्राया 
आँखें धुंधली धुंधली,चेहरा मुरझाया 
बिना सहारा लिए ,भले ना चल पाती 
मुश्किल से ही आधी रोटी ,बस खाती 
और पाचनशक्ति भी अब कुछ मंद है 
मगर हौंसले ,माँ के बहुत बुलंद  है 

कमजोरी के कारण थोड़ी टूटी  है 
चुस्ती फुर्ती ,उसके तन से रूठी है 
हालांकि कुछ करने में मुश्किल पड़ती 
काम कोई भी हो ,करने आगे बढ़ती 
ऊंचा बोल न पाती,ऊंचा सुनती है 
लेटी लेटी ,क्या क्या सपने बुनती है 
कोई आता मिलता उसे आनंद है 
मगर हौंसले माँ के बहुत बुलंद है 

हाथ पैर में ,बची न ज्यादा शक्ति है 
मोह माया से ,उसको हुई विरक्ति है 
तन में हिम्मत नहीं मगर हिम्मत मन में 
कई मुश्किलें ,हंस झेली है जीवन में 
अब भी किन्तु विचारों में अति दृढ़ता है 
उसको कुछ समझाना मुश्किल पड़ता है 
खरी खरी बातें ही उसे पसंद  है 
मगर हौंसले ,माँ के बहुत बुलंद है 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

मंगलवार, 9 अक्तूबर 2018

मुझे इन्द्रासन नहीं चाहिए 

जो अपने किसी भी  प्रतिद्वंदी को उभरता देख कर 
उसके चरित्रहनन के लिए,सुन्दर स्त्रियां  भेज कर 
उसका ध्यान  विचलित कर ,उसे पथ भ्रष्ट करे 
अपनी कुर्सी बचाने को ,उसकी तपस्या नष्ट करे 
अगर  इंद्र बनने पर ,ये सब करना पड़ता है  
तो मुझे वो इन्द्रासन नहीं चाहिए 

अगर उसके  भक्त  ,किसी के प्रभाव में आकर
रोक दे उसकी पूजा तो इसे अपना अपमान समझ कर 
रुष्ट होकर ,क्रोध में उनकी बस्ती में ला दे जल प्रलय 
उन्हें फिर अपनी शरण में लाने को दिखलाये  भय 
अगर इंद्र बनने पर ,ये सब करना पड़ता है ,
तो मुझे वो इन्द्रासन नहीं चाहिए 

जो सोमरस पीता रहे और  अप्सराओं संग मौज मनाये 
पर किसी पराई स्त्री की सुंदरता पर इतना आसक्त हो जाए 
कि अपनी काम वासना मिटाये ,उसके पति का रूप धर 
उसके सतीत्व का हरण  करे ,उसके साथ व्यभिचार  कर 
अगर इंद्र ये सब करतूतें करता रहता है 
तो मुझे वो इन्द्रासन नहीं चाहिए 

मैं किसी बृजवासी को ,जल के प्रकोप से डराना नहीं चाहता 
मैं किसी विश्वामित्र का ,तप भंग  करवाना  नहीं चाहता 
मैं  किसी अहिल्या को ,पत्थर की शिला बनवाना नहीं चाहता 
इसलिए मैं जो भी हूँ ,जैसा भी हूँ ,खुश हूँ ,
मुझे इन्द्रासन नहीं चाहिए 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू ' 
 

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