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रविवार, 10 जनवरी 2021

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शुक्रवार, 8 जनवरी 2021

फुर्सत की ग़ज़ल

बैठे थे फुरसत में ,उनका दिल लगाने लग गये  
एक दिन जब हम उन्हें गाने सुनाने  लग गये
हमको ना सुर की पकड़ थी ,ना पकड़ थी ताल की ,
बेसुरे हम ,कान  उनके ,बस  पकाने लग गये
हमारे गाने की तानो  ने बिगाड़ा उनका मन ,
वो खफ़ा होकर हमें ,ताने सुनाने लग गये
बुढ़ापे में आशिक़ी का भूत कुछ ऐसा चढ़ा ,
मूड उनका सोने का था ,हम सताने लग गये
'घोटू 'कुछ ना काम है ना काज है ,हम क्या करें ,
वक़्त अपना इस तरह से ,हम बिताने लग गये  

घोटू 
रेवड़ी

रूप उनका सुनहरा था ,गुड़ की भेली की तरह ,
होश हमने खो दिये जब नज़र थी उन पर  पड़ी
इस तरह उनने पकाया ,गुड़ था अपने प्यार का ,
दिल हमारा ,तिल सा चिपका ,बन गया है रेवड़ी

घोटू 
नींद

हुस्न और उनकी अदाएं ,डगमगा पाती नहीं
आँख जब लगती है लगने ,तो वो खुल पाती नहीं
लाख लालच दे हमें ,फुसला मनाये प्यार से ,
नींद जब आती है तो आती है रुक पाती नहीं

घोटू 
कसूर और जुर्बाना

मूड उनका सोने का था ,हमने सोने ना दिया ,
जुर्बाने में सोने के जेवर दिलाना  पड़  गया
 गाने गा गा बेसुरे  ,उनको पकाया ,फल मिला ,
खाना उसदिन शाम को ,हमको पकाना पड़ गया
उलटी सीधी ,बेतुकी ,बातों से चाटा इस कदर ,
आलू टिक्की ,चाट सब ,उनको खिलाना पड़ गया
मार उनके प्यार की ,हम पर पड़ी कुछ इस तरह
मारकेटिंग के लिए ,उनको ले जाना पड़  गया

घोटू 
दो दो लाइना -खाते पीते

तू है मेरी गरम जलेबी ,मैं रबड़ी का लच्छा
दोनों संग मिल स्वाद बढ़ाते ,प्यार हमारा सच्चा  

फूला हुआ  गोलगप्पा मैं ,स्वाद भरा तू पानी
तू दिल में आ ,स्वाद चटपटा ,भर देती तूफानी

मैं हूँ पाव और तू भाजी ,सबके मन को भाती
कभी बड़ा बन ,बड़ा पाव हम ,बन जाते है साथी

तू इडली सी नरम मुलायम मैं मद्रासी डोसा
तू है फूली हुई कचौड़ी ,मैं हूँ गरम समोसा

मैं हूँ गरम भटूरे जैसा ,तू छोले सी शोला
तेरी मदमाती खुशबू से ,मन मेरा भी डोला

मैं आलू की टिक्की सा तू चाट पापड़ी प्यारी
दही बड़े सी स्वाद चटपटी ,सब पर पड़ती भारी

प्रियतम तू है दाल माखनी ,मैं भड़ता बैंगन का
मिस्सी रोटी सा प्यारा ,जलवा तेरे यौवन का

मैं राजस्थानी बाटी तू ,नरम चूरमे जैसी
बेसनगट्टे की सब्जी हो ,स्वाद लगे तू वैसी

मैं काले गुलाबजामुन सा ,रसमलाई तू प्यारी
स्लिम काजू की कतली ,तूने ,मेरी नियत बिगाड़ी
१०
मैं मलाई घेवर सा ,तेरा है  फीनी  सा जलवा
कलाकार मैं कलाकंद सा ,तू गाजर का हलवा
११
मैं मथुरा के पेड़े जैसा ,तू अंगूरी पेठा
खुर्जा की खुर्चन जैसा मैं तेरे दिल में बैठा
१२
सुबह नाश्ते में पोहे सी ,तू है सीधी  सादी
बारिश में तू गरम पकोड़ी ,बन जाती उन्मादी
१३
मैं हूँ चम्मच च्यवनप्राश का तू टॉनिक की गोली
तू मेरी ,मैं तेरी ताकत ,तू मेरी हमजोली
१४
मैं उबले चावल जैसा तू चटकीली बिरयानी
मैं हूँ भोजनभट्ट दिवाना ,तू रसोई की रानी

मदन मोहन बाहेती'घोटू ' 

गुरुवार, 7 जनवरी 2021

लगवाओ वेक्सीन रे

ये बिमारी कोरोना की ,जो लाया था चीन रे
आओ बचाएं ,खुद को इससे लगवायें वेक्सीन रे
 
घातक है ये बहुत बिमारी ,दुनिया को बर्बाद किया
भारतीय विज्ञानिक ने मिल ,ये टीका ईजाद किया
कोरोना की बिमारी से ,खुद को अगर बचाना  है
एक माह के अंतर से बस दो टीके लगवाना है
टीके लगवा ,रहे सुरक्षित ,बजे चैन की बीन रे
हमें रोकना है कोरोना ,जो लाया था  चीन रे

जनहित में मदन मोहन बहती 'घोटू' द्वारा जारी 

बुधवार, 6 जनवरी 2021

मैंने अपने अंदर झाँका

अब तक तो मैं औरों का ही ,मैला दामन करता ताका
पर एक दिन जब,मैंने अपने,उर अन्तर के अंदर झाँका
सहम गया मैं ,भौंचक्का सा ,भरी हुई थी ,कई बुराई ,
अहम और बेईमानी ने ,मचा रखा था ,वहां धमाका
मैंने मन के अंदर झाँका
अब तक मुझे ,नज़र आती थी ,औरों की बुराइयां केवल
समझा करता ,दूध धुला मैं ,मेरा हृदय ,स्वच्छ है निर्मल
मेरी सबसे बड़ी कमी थी ,मैं औरों की कमियां गिनता ,
कमियां भरा ,स्वयं को पाया ,जब मैंने अपने को आँका
मैंने मन के अंदर झाँका
मेरा अहम् कुंडली मारे छुपा हुआ था ,मेरे अंदर
एक दो नहीं ,कई बुराई ,का लहराता भरा समंदर
प्रकट नहीं ,अंदर ही अंदर ,स्पर्धा भी ,घर कर बैठी ,
लालच और लालसाओं ने ,डाल रखा था ,मन पर डाका
मैंने मन के अंदर झाँका
मोह और माया ,मुझे बरगला ,बैठी मुझ पर ,कैसे शिकंजा
रह रह कर ,अभिमान झूंठ भी ,मार रहे थे ,मुझ पर पंजा
अपने स्वार्थ पूर्ति की चाहत ,देती थी ईमान डगमगा ,
राह भले थी  सीधी सादी ,मैं चलता था ,आँका बांका
मैंने मन के अंदर झाँका
मन बोला  ,मत ढूंढ बुराई औरों में ,खुद को सुधार तू
अपने अंदर ,छुपे हुये सब ,राग द्वेष का ,कर संहार तू
तू सुधरेगा ,तेरी नज़रें ,देखेगी सबकी  अच्छाई ,
और फिर तेरे मन के अंदर ,लहरायेगी ,प्रेमपताका
मैंने मन के अंदर झाँका

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
चले थी जहाँ से ,वहीँ आ गये  है

अनजान थे हम ,जान आ गयी थी ,
हुआ था मिलन जब,हमारा,तुम्हारा
जीवन सफर की ,शुरुवात की थी ,
एक दूसरे का ,लिया था सहारा
बड़ी मुश्किलें थी ,कठिन रास्ता था ,
कहीं पर थे कांटे,कहीं ठोकरें थी
कभी सर्दी गर्मी ,कभी बारिशें थी ,
मौसम की गर्दिश ,हमे तंग करे थी
चमन में हमारे ,खिले फूल प्यारे ,
एक नन्ही  जूही ,एक गुलाब प्यारा
मधुर प्यार की जिनने खुशबू बिखेरी ,
महकाया जीवन ,सजाया ,संवारा
मगर वक़्त ने चक्र ,ऐसा चलाया ,
दामाद आया ,गया ले कर   बेटी
करी शादी बेटे की ,लाये बहू हम ,
बसा घर अलग ,दूर हमसे वो बैठी
बढ़ती उमर ने ,सितम ऐसा ढाया ,
बुढ़ापे में फिरसे ,हो तनहा गये  है
फिर से वही,दो के दो रह गए हम ,
चले थे जहाँ से ,वहीँ आ गये  है

घोटू  

सोमवार, 4 जनवरी 2021

इक्कीस का 'किस'

इक 'किस' लेकर इक्कीस आया ,ढेरों नेह भरा इसमें
मैं मुश्किल में पड़ा हुआ हूँ ,इसको बांटू किस किस में

एक मेरी प्यारी पत्नी जो जनम जनम की साथी है
एक मेरी प्यारी बेटी जो ,मुझ पर प्यार लुटाती है
एक मेरा अच्छा  बेटा  जो मेरा वंश  चलायेगा
प्यार लुटाते भाई बहन ,ये किस किसमे बंट पायेगा
किस को दूँ और किस को ना दूँ ,पड़ा हुआ इस बंदिश में
मैं मुश्किल में पड़ा हुआ हूँ ,इक 'किस 'बांटूं किस किस में

रिश्तेदार कई प्यारे है दोस्त और शुभचिंतक है
थोड़ा थोड़ा उनको भी दूँ ,उनका भी बनता हक़ है
सूरज ,चंदा और सितारे ,वृक्ष ,फूल पत्ते सारे
प्राणदायिनी हवा और जल ,सब लगते मुझको प्यारे
जी करता है ,सब में बांटूं ,प्यार लुटाया जिस जिस ने
मेरे इतने सारे प्रेमी ,इक 'किस' ,बांटूं  किस किस में  

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

रविवार, 3 जनवरी 2021

चलती है

नहीं है पैर ,नहीं सर है नहीं काया है
मगर कुदरत ने उसे इस तरह बनाया है
कभी हलकी है ,कभी तेज, हवा चलती है
दिखाई देती नहीं ,मगर चला करती है

बड़ी नाजुक है जिससे स्वाद हम चखा करते
जिसपे बत्तीस चौकीदार ,नज़र रखा करते
कोई न रोक पाता ,जब जुबान चलती है
एक स्थान पर रहती है मगर चलती है

एक जगह टिकती नहीं ,होती है बड़ी चंचल
देखती ही सदा रहती है इधर और उधर
चलाती तीर भी है ,खुद भी मगर चलती है
बड़ी ही कातिल हुआ करती ,नज़र चलती है

रौब साहब का बहुत चला करता ,दफ्तर में
मामला उल्टा ,मगर हुआ करता है घर में
कोई भी मसला हो बीबी की बात चलती है
साहब चुप रहते है ,बीबी की सदा चलती है

वक़्त अच्छा बुरा ,आता है चला जाता है
बदलता रहता है ,रोता है कभी  गाता है
चाल तारों की, पर तक़दीर को बदलती है
नज़र आती नहीं किस्मत जो चाल चलती है

घोटू 
युग परिवर्तन

हमने वो युग भी देखा था ,हमने ये युग भी देखा है

काली स्लेट ,खड़िया लेकर बच्चे अ आ ई पढ़ते थे  
स्याही और होल्डर से लिख कर आगे पढाई में बढ़ते थे
फिर फाउंटेन पेन आया ,और बाल पेन ने किया राज
अब पेपर लेस पढाई से ,चलता है सारा काम काज
कम्यूटर पर और ऑन लाइन ,बच्चे पढाई अब करते है
सारी दुनिया का वृहद ज्ञान ,निज लैपटॉप में  भरते है
छोटे बच्चों को बड़े बड़ों ,के कान काटते देखा है
हमने वो युग भी देखा था ,हमने ये युग भी देखा है
 
उन दिनों सास का शासन था ,बहुएं सासों से डर रहती
करती थी दिन भर काम और उनके ताने भी थी सहती
बच्चे उन्मुक्त खेलते थे ,बस्तों का बोझा भी कम था
चाचा ,ताऊ सब संग रहते ,और मस्तीवाला आलम था
माहौल इस तरह अब बदला ,बहुओं से डरती थी सासें
और मात पिता भी बच्चों से ,डर  कर रहते,अच्छे खासे
परिवार नहीं संयुक्त रहे ,अब खिंची बीच में  रेखा है
हमने वो युग भी देखा था ,हमने ये युग भी देखा है

तब गावों के कुछ घर में ही ,रखते थे रेडियो लोगबाग
फिर ट्रांजिस्टर ले बड़ी शान से घूमा करते उसे टांग
काले सफ़ेद टेलीविज़न ने नयी क्रांति का बोध दिया
रंगीन हुआ टेलीविजन ,लोगो ने हाथों हाथ लिया
सबको पछाड़ जब मोबाईल ,आया तो सबके मन भाया
रेडियो ,कैमरा और टीवी ,अब सबकी मुट्ठी में आया
यह छोटा उपकरण काम का है और बड़े मजे का है
हमने वो युग भी देखा था ,हमने ये युग भी देखा है

तब सिगरेट पांचसोपचपन का , डिब्बा निज हाथों में लेकर
कुछ लोग शान से धूम्रपान ,करते रहते है रह रह कर
फिर पान मसाले ने  आकर ,ऐसा लोगों का रुख बदला
सबके हाथों की शान बना,डिब्बा एक पानपराग  भरा
वो युग बीता ,कोरोना ने ,फिर फैलाया ऐसा डर है
कि उससे बचने ,लोगों के ,हाथों में सेनेटाइजर है
बदले हालातों के आगे ,हमने घुटनो को टेका है
हमने वो युग भी देखा था ,हमने ये युग भी देखा है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
 

शुक्रवार, 1 जनवरी 2021

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दो दो लाइना

पहली सुबह धुंध वाली है ,सूरज भी है बुझा बुझा
जैसे हो नाराज बहू से ,मुंह सास का सुझा सुझा

ख़ामोशी जैसी छाई है ,लगते है हालत वही
पतिदेव नाराज हो गए ,मिली सुबह की चाय नहीं

बिगड़ा वातावरण ठंड में ,आयी है आफत गहरी
घर गंदा ,बर्तन जूंठे है ,छुट्टी चली गयी मेहरी

कोहरे की चादर ओढ़े है ,ये पृथ्वी चुपचाप पड़ी
मुझे रजाई छोड़,जगाने की जिद पर तुम मगर अड़ी

ओस पेड़ पत्तों से टपके ,तनिक हवा जो चल जाए
जैसे याद पिया की आये ,विरहन आंसूं टपकाये

मुड़े तुड़े घर के कोने में ,बिखरे है कल के अखबार
ज्यों किसान आंदोलन करते ,हो दिल्ली की सीमा पार

घोटू 
बीस की बिदाई

जाओ बीस तुम,लेकर जाओ ,कोरोना को साथ में
ताकि फिर से सुख और शांति आ जाए हालात में

आया कोरोना ,एक बहेलिया ,फंसा जाल में हमे लिया
हम उन्मुक्त गगन में उड़ने वालों को था कैद किया
रहे फड़फड़ा पंख ,बंद हम ,पिंजरे में ही सारे थे
भूल चहकना गये ,मौन सब ,परेशानियों मारे थे
दहशत छोड़ ,मिले आजादी ,उड़े खुले आकाश में
जाओ बीस तुम ,लेकर जाओ ,कोरोना को साथ में

हटे बंदिशें ,बाजारों में ,पहले जैसी रौनक हो
हंसी ख़ुशी मिल ,सभी मनाये ,त्योंहारों में रंगत हो
खुलें सिनेमाहाल ,रेस्त्रां,मस्ती हो और चहल पहल
फिर से वही पुराने ढर्रे ,आये जिंदगी की हलचल
ऐसा इक्कीस आये ,भिगो दे ,खुशियों की बरसात में
जाओ बीस तुम ,लेकर जाओ ,कोरोना को साथ में

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

गुरुवार, 31 दिसंबर 2020

स्वर्ग में न्यू ईयर पार्टी

कोरोना की बंदिश मारे ,हम सारे 'इन डोर 'हैं
मगर स्वर्ग में नये वर्ष  की दावत का अब दौर है
जब से महाशय धर्मपाल जी ,हुए स्वर्ग के वासी है
एम डी एच मसालों की वहां रौनक अच्छी खासी है
सभी सब्जियों में खुशबू और स्वाद नया अब आता है
चाट मसाला ,रम्भा और उर्वशी मन ललचाता है

घोटू 

बुधवार, 30 दिसंबर 2020

वो रविवार

जवानी में ,
जब मन में एक ही धुन थी सवार
इतना बढ़ाऊं अपना कारोबार ,
कि अपने परिवार को दूँ संवार
इसलिये सोमवार से शनिवार ,
सिर्फ व्यापार ही व्यापार
पर हफ्ते में सिर्फ एक बार
जब आता था रविवार
तो मेरे संग होता था पूरा परिवार
जिनके साथ वक़्त बिताकर ,
नहीं रहता था ख़ुशी का पारावार
किन्तु अब बढ़ती हुई उमर में ,
जब मैं हूँ  बेकार
बच्चे संभालते है कारोबार
हर दिन छुट्टी है ,हर वार है रविवार
पर बिखर गया है परिवार
बच्चों ने बसा लिया है अपना अपना घर
अब मैं और मेरी पत्नी है केवल
तब याद आते है बार बार
वो रविवार
जब मस्ती में साथ रहता था सारा परिवार

घोटू 
आया सन इक्कीस रे

मन तड़फाकर ,हमे सताकर ,गया बीत सन बीस रे
अब है मन में चाह ,नया उत्साह ,लाये इक्कीस  रे

कोरोना ने कहर मचाया ,कितनो के ही प्राण हरे
नौ महिने से अधिक बिताये ,घर में घुस कर ,डरे डरे
दशहत मारे ,हम बेचारे ,सब इतने मजबूर रहे
बना दूरियां ,अपनों से ही ,उनसे दो गज ,दूर रहे
मुंह पर पट्टी बंधी ,कभी ना हटी ,रही मन खीस रे
अब है मन में चाह ,नया उत्साह ,लाये इक्कीस रे

हुआ प्रकृती का कोप ,बढ़ गए रोग आपदायें आई
आये कहीं भूकंप ,कहीं तूफ़ान ,बाढ़ भी दुखदायी
सीमाओं पर सभी पडोसी देश ,मचा आतंक रहे
बंद रहे बाज़ार ,लोग कुछ ,बेकारी से तंग रहे
खस्ता हुई व्यवस्था ,मन में ,सबके उठती टीस रे
सबके मन में चाह,नया उत्साह, लाये इक्कीस रे  

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
२०२० का साल

कितनो की बज गयी ढपलियाँ,नहीं रहा सुरताल
कितने ही बीमार हो गए ,कई हुए बदहाल
दुनिया को आतंकित करने ,चली चीन ने चाल
सबके मन में टीस दे गया ,बीस बीस का साल

कोरोना ने कहर मचाया ,पड़े कई बीमार
शहर शहर तालाबंदी थी ,बन्द हुआ व्यापार
लोगों ने दूरियां बनाली ,मुंह पर पट्टी डाल
सबके मन में टीस दे गया ,बीस बीस का साल

बंद फैक्टरी ,कामकाज सब ,लोग हुए बेकार
किया गाँव की ओर पलायन ,होकर के लाचार
मीलों पैदल चले बिचारे ,परेशान ,बदहाल
सबके मन में टीस  दे गया ,बीस बीस का साल

बंद होगये मंदिर ,मस्जिद ,सभी धर्म स्थान  
कोरोना डर ,गर्भगृहों में, छुप बैठे भगवान
अस्तव्यस्त सब ,चली वक़्त ने ऐसी उलटीचाल
सबके मन में टीस दे गया ,बीसबीस का साल

अब आया इक्कीस करेगा,हम सबका उपचार
आशा है सबको 'किस 'देकर ,फैलाएगा प्यार
यही प्रार्थना है ईश्वर से ,सभी रहे खुशहाल
सबके मन में टीस दे गया ,बीसबीस का साल

मदन मोहन बाहेती 'घोटू ' 

रविवार, 27 दिसंबर 2020

बेचारे गरीब किसान

बेचारे गरीब किसान
अपना सब सामान
ट्रालियों में लाद  कर लाये  है
दिल्ली में आंदोलन करने आये है
उनके तथाकथित शुभचिंतक नेता ,
उन्हें भटकाने में लगे है
अपनी लूटी हुई नेतागिरी की दूकान ,
फिर से चमकाने में लगे है
इन्ही की बातों से  बरगलाये ,
बिचारे किसान जिद पर अड़े है
सर्दी में सड़कों पर खुल्ले में पड़े है
कोई इन्हे सब सुविधा मुहैया करवा रहा है
सर्दी है तो कम्बल बंटवा रहा है
काजू किशमिश लूट रही है
बादाम घुट रही है
लड्डू है ,जलेबियाँ है
दिन भर चाय की चुस्कियां है
खाने के लिए लंगर चल रहे है
मशीनों में कपडे धुल  रहे है
पैर दबाने के लिये मशीने मंगाई है
फ्री में हजामत बनाता नाइ है
मशीनों से रोटियां बन रही है
अच्छी मस्ती छन रही है
क्योंकि सब सुविधाएँ मुफ्त है
बस सर्दी का कुफ्त है
अलाव के लिए लकड़ियों का इंतजाम है
हर तरह का  आराम है
इसलिये जल्दी नहीं ,हटने में देर है
क्योंकि अभी फसल कटने में देर है
नेताजी कहते है क़ानून काले है
जब तक वापस नहीं होते,
 हम नहीं जानेवाले है
हम नेताजी की बात मानते है
काला क्या है ,नहीं जानते है
बस थोड़ी सी नारेबाजी कर लेते है
दिन भर मौजमस्ती से पेट भर लेते है
कौन  क्यों कर रहा है ये सारे इंतजाम
इस बात से अनजान
बेचारे किसान
ये नहीं  जानते कि उनके नेताओं के
मापदंड दोहरे है
वो तो इस राजनीति के खेल के ,
सिर्फ मोहरे है
रोज रोज ये जो इतनी हलचल दिख रही है
कई भूले बिसरे नेताओं की
राजनैतिक रोटियां सिक रही है
फिर भी इनकी बातें मान
सर्दी में परेशान
बेचारे गरीब किसान

मदन मोहन बाहेती 'घोटू ' 
नीला आसमान खो गया

नीला आसमान खो गया
उगलती काला धुंवां है ,फैक्टरी की चिमनियां
कार,ट्रक ,डीज़ल ,प्रदूषित कर रहे सारी हवा
खेत में जलती पराली
पटाखों वाली दिवाली
नीला आसमान खो गया

वृक्ष ,जंगल कट रहे है बन रहे नूतन भवन
बिगड़ता जाता दिनोदिन ,प्रकृति का संतुलन
सांस लेने में घुटन है
बहुत ज्यादा प्रदूषण है
नीला आसमान खो गया

सरदियों  में धुंध कोहरा,गरमियों में आंधियां
बनी दूरी चाँद तारों और  इंसान  ,दरमियां
टिमटिमाते थे जो तारे
नज़र आते नहीं  सारे
नीला आसमान खो गया

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2020

बुढ़ापा और प्यार

तेरे गेसू भले ही अब गजब नहीं ढाते ,
श्वेत है ,सादगी है ,साधुओं से रहते है
नयन तेरे नहीं अब तीर चला पाते है ,
मोतियाबिंद से ढक ,बुझे बुझे रहते है
गुलाबी गाल का भी हाल बड़ा खस्ता है
लरजते होंठ हंसी हँसते है ,फीकी ,सादी
कसाव जिस्म का ,जाता है दिनबदिन ढलता
उफनता जिस्म भी अब रहा नहीं उन्मादी
न रही वो पुरानी शोखियाँ और वो जलवे ,
न बची जिस्म में  बाकी  वो पुरानी गरमी
न अदाओं में  ही बचा  है  वो पुराना जादू ,
नहीं बातों में बेतकल्लुफी और बेशरमी
मगर फिर भी न जाने क्यों ये हुआ जाता है ,
दिनों दिन बढ़ती ही जाती है मोहब्बत अपनी
तू मेरे साथ है और पास है ये क्या कम है ,
खुदा के ख़ैर से जोड़ी है सलामत  अपनी
मोहब्बत तन की ना बस मन की हुआ करती है ,
ये ही अहसास उमर ढलती है ,तब  होता है
 प्यार तो रहता है कायम सदा मरते दम तक,
करना पड़ता मगर हालात से समझौता  है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
मैं और मेरी रजाई

मैं और मेरी रजाई
अक्सर ये बातें करते है ,
तुम ना होती तो क्या होता
मैं सरदी में कैसे सोता

बैठ धूप  में दोपहरी तो
जैसे तैसे कट भी जाती
ठिठुरन भरी सर्द रातों में,
नींद मुझे पर कैसे आती
नरम ,मुलायम और रेशमी ,
ये कोमल आगोश तुम्हारा
जैसे चाहूँ ,तुम्हे  दबा  लूँ ,
पर रहना खामोश तुम्हारा
नहीं तकल्लुफ  हममें तुममें ,
हुआ प्यार का है समझौता
मै  और मेरी रजाई ,
अक्सर ये बातें करते है ,
तुम ना होती तो क्या होता

तभी रजाई ,हुई रुआंसी ,
करी शिकायत ,कसक कसक के
क्यों ये झूंठा प्यार दिखाते ,
तुम हो यार बड़े मतलब के
तुम्हारा ये प्यार मौसमी ,
मौसम बदला ,तुम बदलोगे
नहीं सुहाउंगी मै तुमको ,
दबा मुझे बक्से में दोगे
मैं बरसों तक साथ निभाती ,
लेकिन प्यार तुम्हारा थोथा
मैं और मेरी रजाई,
अक्सर ये बातें करते है ,
तुम ना होती तो क्या होता

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

सोमवार, 21 दिसंबर 2020

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बुधवार, 9 दिसंबर 2020

कोरोना के साइड इफेक्ट


कोरोना काल के संग
बदल गए है यूं रंग ढंग
कि कुछ प्रचलित व्यंग ,
होने लग गये  है साकार

चूहा चिन्दियाँ  पाकर ,
बजाज तो नहीं बना ,पर
'मास्क' बनाने का आजकल ,
करने लगा है व्यापार

कोरोना के पहले
हसीनो के चेहरे
बड़े मतवाले होते थे
सुंदर सुहानेअधर
 लिपस्टिक लगाकर
रस भरे प्याले होते थे

पर कोरोना से डर  
मास्क में छिपे अधर ,
लिपस्टिक की बिक्री पर
 असर पड़ा है भारी
आई इस तरह मन्दी
करनी पड़ी तालाबंदी  
 कोरोना की मारी
लिपस्टिक इंडस्ट्री बेचारी

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

बुधिया रोए हाय किसानी

 

झर झर झरते आंख से आंसू

बुधिया रोए हाय किसानी....


छुट भैये कुछ नेता आए

डांट डपट कर उन्हें मनाए

हंडिया बर्तन खाली करके

मंगरू काका गठरी बांधे

ठंड ठिठुरते आंख में आंसू

छोड़ गांव घर बेमन भागे

झर झर झरते आंख से आंसू....


चार दिना आंदोलन ठानी

अमृत वर्षा सब  बेईमानी

लल्ली की थम गई पढ़ाई

बिन सींचे जल गई किसानी

साहूकार रोज घर झांके

गिद्ध सरीखा बैठे ताके

झर झर झरते आंख से आंसू....


भूसा जैसे भर ट्राली में

दो टुकड़े डाले थाली में

भालू बंदर और मदारी 

सर्कस खेल दिखाए रहे हैं

तम्बू और मशाल साथ लेे

चिंगारी भड़काय रहे हैं 

झर झर झरते आंख से आंसू....


बाराती से सज कुछ बैठे

काजू मेवा खाय रहे 

भोंपू माइक अख बा रन मा

फोटू रोज खिंचाइ रहे

वो दधीचि की हड्डी खातिर

खीस निपोर रिझाय रहे


झर झर झरते आंख से आंसू 

 बुधिया रोए हाय किसानी....


कुछ पाएं या छिन सब जाए

मेरे ' वो ' सकुशल घर आएं

मंगल सूत्र रहे गर मेरे 

दो गज माटी मिल ही जाए

प्रेम प्रीति सपने संग छौना

घास फूस का रहे बिछौना


झर झर झरते आंख से आंसू 

 बुधिया रोए हाय किसानी....

सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर5

प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश

भारत

मंगलवार, 8 दिसंबर 2020

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शनिवार, 5 दिसंबर 2020

हरिद्वार -एक प्रतिक्रिया

गंगा के तीर बसा ,इसीलिये तीरथ है ,
तीरथ में आकर के पैसे तर जाते है
भगत लोग आते है ,भाव लिए भक्ति का ,
इसीलिये चीजों के भाव बढे  जाते है
आओ तो दान करो ,जाओ तो दान करो ,
पंडे पुजारी सब ,दान गीत गाते है
नाम बड़ा सच्चा है ,हरद्वार आने पर ,
खर्चे के सभी द्वार ,खुद ही खुल जाते है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
बुढ़ापे की आशिक़ी

एक दिन मैं छत पर धूप खा रहा था
जवानी का बीता जमाना याद आरहा था
'अभी तो मैं जवान हूँ ' ये ख्याल आने लगा
बासी कढ़ी में उबाल आने लगा
जागृत होने लगी मन में तम्मनायें
सोचा चलो ,बुढ़ापे में  इश्क़ लड़ाया जाये
बस निकालने मन की ये ही भड़ास
करने लगा किसी हमउम्र नाजनी की तलाश
घूमने जाने लगा पार्क में
मॉर्निग वाक में
रहता था इस ताक में
कि कोई साठ  पारी
सुन्दर ,सुमुखी अकेली नारी
मिल जाये तो भाग्य जग जाए
अंधे के हाथ बटेर लग जाए
किस्मत से एक हसीना का हुआ दीदार
आँखें हुई चार
उमर उसकी भी साठ के आसपास थी
शायद उसे भी कोई मुझ जैसे की तलाश थी
नज़रें लड़ी
बात आगे बड़ी
हमारी आपस में लगी  पटने
पार्क में ,गपशप में समय लगा कटने
ये बुढ़ापे का रोमांस
भी होता है बाय चांस
हम दोनों बासी उमर के लोग ,
ताज़ी मोहब्बत का मज़ा लूटने लगे
मन में मिलन के लड्डू फूटने लगे
वो भी पुरानी खायी  खेली थी
पर उसकी बातें बड़ी अलबेली थी
कभी कभी फरमाइशें करती थी  ऊलजलूल
एक दिन बोली जैसे कली बनती है फूल
वैसी ही कोई चीज खिलाओ  तो जाने
हम भी खिलाड़ी थे पुराने
हमने उसके आगे पॉपकॉर्न का पैकेट
कर दिया पेश
देख कर हमारी बुद्धि और ज्ञान
वो  हम पर हो गयी कुरबान
अब आपको क्यों बताएं हमें क्या मिला इनाम
एक दिन उसका मन चंचल
खाने को हुआ विकल
कोई ऐसी चीज जो फूल भी हो और फल
हमने अपना दिमाग भिड़ाया
और  उसको गुलाब जामुन खिलाया
और उसका ढेर सा प्यार पाया
उसकी फरमाइशें बड़ी निराली होती थी
पहेली सी उलझी ,पर प्यारी होती थी  
जैसे एक दिन बोली ,ऐसा कुछ खाया जाये
जो मन को भाये पर शुगर ना बढ़ाये
इतनी लिज्जत हो की तबियत हो जाए तर
और पेट भी जाए भर
उसकी इस फरमाइश पर
शुरू में तो हम हुए भौंचक्के
फिर उसे चाट के ठेले पर ले गए ,
खिलाने गोलगप्पे
वो एक एक गोलगप्पा मुंह में धरती थी
सी सी करती थी  
चटखारे भरती थी
तबियत हो गयी तर
पेट भी गया भर
और बढ़ी भी नहीं शुगर
 जब हम पूर्ण करते थे उसकी फरमाइशें
पूर्ण होती थी हमारी भी ख्वाइशें
पर उसकी पिछले हफ्ते वाली ,
फरमाइश थी अजब
उसे जलेबी खाने की लगी थी तलब
जलेबी ,उसे लगती बड़ी लजीज़ थी
पर उसे डाइबिटीज थी
जलेबी और वो भी शुगर फ्री
हमारे आगे मुश्किल थी बड़ी
पर हमारी अनुभवी आशिक़ी ने जोर मारा
जरा सोचा और विचारा
और छोटी छोटी जलेबी लेकर आये
आधी जलेबी को अपने होटों पर लगाए
और उसकी चाशनी चूस डाली
और रसहीन पोर्शन वाली जलेबी उसके मुंह में डाली
और उसका आधा रसीला भाग हम चूसने लगे
ऐसा स्वाद आया की हम रह गए ठगे के ठगे
एक तो जलेबी का रस और उसपर
उनके गुलाबी होठों के चुंबन का स्वाद
जिंदगी भर रहेगा याद
और वो भी मुस्करा रही थी
बिना शुगर की जलेबी का मज़ा उठा रही थी
हमारी नजदीकियां बढ़ती ही जारही थी
तो दोस्तों,हम आजकल इसतरह ,
बुढ़ापे के इश्क़ का मज़ा उठा रहे है
जब भी मौका मिलता है ,जलेबियाँ खा रहे है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2020

गुरुवार, 26 नवंबर 2020

सूखे स्विमिंग पूल के आंसू

कोई मेरा  दरद  न जाने ,मैं 'कोविड 'का मारा
अबकी बरस ,मैं रहा तरस ,पाया ना दरस तुम्हारा

मेरा दिल जो कभी लबालब ,भरा प्रीत से रहता
एक  बरस से सूना है ये ,पीर   विरह की सहता
सूखा सूखा पड़ा हृदय है ,प्रेम नीर का प्यासा
दुःख केआंसू, खुद पी लेता ,रहता सदा उदासा
ना उठती अब मन में लहरें ,ना कोई हलचल है
ना ही शोर मचाते बच्चों की कुछ चहलपहल है
ना ही कपोत ,गुटरगूँ करते ,पिये चोंच भर पानी
ना किलोल करती जलपरियों की वह छटा सुहानी
याद आते वो सुबह शाम,वो रौनक,वो जलक्रीड़ा
सूने तट ,सूना अन्तरघट अब घट घट में पीड़ा
 मैं तुम्हारा ,तरणताल हूँ ,दीन  ,हीन  ,बेचारा
अबके बरस मैं रहा तरस ,पाया ना दरस तुम्हारा

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

मंगलवार, 24 नवंबर 2020

अतिथि ,तुम कब जाओगे

मैंने कोरोना से पूछा ,सुनो अतिथी तुम कब जाओगे
अब तक सबको बहुत सताया ,कितना और सताओगे

जब भी आते मेहमान है ,घर में रौनक छाती है
खुश हो जाते है घरवाले ,चहल पहल हो जाती है
लेकिन जब से मेहमान बन ,हुआ आगमन तुम्हारा
घर भर में छाई ख़ामोशी ,हर कोई दहशत मारा
लोग सभी घर में घुस बैठे ,सन्नाटा सा  फेल  रहा
तरह तरह की कई मुसीबत ,हर कोई है झेल रहा
मिलनसारिता दूर हुई ,लोगों ने दूरी  बना रखी
अपने मुंह पर पट्टी बांधे ,लोग हो रहे बहुत दुखी
अपना डेरा कितने दिन तक ,अब तुम और जमाओगे
मैंने कोरोना से पूछा ,सुनो अतिथि तुम अब जाओगे

बहुत दुष्ट प्रकृति तुम्हारी ,हरकत बहुत कमीनी है
कितनो के घरबार उजाड़े ,कितनी रोजी छीनी है
तुम छोटे पर कितने खोटे,सबको ये अहसास हुआ
 बने गले की फांस इस तरह ,मुश्किल लेना सांस हुआ
होली से ले दीवाली तक छटा गयी त्योंहारों की
शादी ,उत्सव भूल गए सब ,रौनक गयी बाजारों की
लेकिन अब 'वेक्सीन 'आगया ,निश्चित अंत तुम्हारा है
तुम्हे  भगा कर ही छोड़ेंगे  ,यह संकल्प हमारा है
सुनो समेटो अपना बोरी बिस्तर ,बच ना पाओगे
मैंने कोरोना से पूछा  सुनो अतिथि तुम कब जाओगे

मदन मोहन बाहेती'घोटू '

सोमवार, 23 नवंबर 2020

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गुरुवार, 19 नवंबर 2020

आज की बात

आज सुबह से ही पत्नीजी,  मुंह फुलाये  थी बैठी
ना खुद ने ही कुछ खाया ना मुझको  खाने को देती
मेरा बस कसूर था  इतना ,सजा हूं जिसकी भुगत रहा
तुम सुन्दर हो आज लग रही ,मैंने उनको सुबह कहा
मेरा 'आज 'शब्द कहना ही ,मेरी बहुत बड़ी गलती
इसका मतलब बाकी दिन मैं ,सुन्दर तुम्हे नहीं लगती
ऐसा ही है तो क्यों मुझको लाये थे तुम शादी कर ,
 जबसे आयी नयी पड़ोसन ,उस पर रहती गढ़ी नज़र
वो लगती है कनक छड़ी सी ,मैं तुमको तंदुरुस्त लगूं
वो लगती है चुस्त तुम्हे और मैं  थोड़ी सी सुस्त लगूं
मैं भी दुबली और छरहरी ,शादी पहले ,थी होती
तुम्हारे ही लाड प्यार ने मुझको बना दिया मोटी
मैं बोला स्वादिष्ट भोज नित्य मुझको पका खिलाती हो
रोज प्रेम से  खाता पर जब मटर पनीर बनाती हो
उस दिन तारीफ़ कर यदि कहता ,खाना बड़ा लजीज़ बना
कर मनुहार दुबारा देती ,मैं कर पाता नहीं मना
वैसी मटर पनीर की तरह  ,नज़र आयी तुम आज मुझे
 कहा  इसलिए ही सुन्दर था ,ऐसा था अंदाज मुझे
अपनी रूप प्रशंसा सुन तुम  बाग़बाग़ हो जाओगी
मटर पनीर की तरह दूना मुझ पर प्यार लुटाओगी
लेकिन मेरी मंशा को तुम समझ नहीं पायी डिअर
बात सुनी पत्नी ने मुझको ,लिया बांह में अपनी भर

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
बड़े न बनने के उपाय

अगर बड़ा बनना नहीं ,आता तुमको रास
बूढ़े माता पिता को ,सदा रखो तुम पास
सदा रखो तुम पास करो उनको सन्मानित
लो अनुभव का लाभ ,पाओ आशीषें अगणित
उनका भी मन लगे ,उमर वो लम्बी पायें
रहें  बड़े जो   साथ  ,आप छोटे कहलायें

घोटू 

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बुधवार, 18 नवंबर 2020

आया बुढ़ापा -बिछड़े साथी

कहते जब वक़्त बुरा आता
साया भी साथ छोड़ जाता
ये ही सब गुजरी ,मेरे संग
जब देख बुढ़ापे के रंग ढंग
मेरे अंगों ने रंग बदला
कुछने छोड़ाऔर मुझे छला
वो जो थे मेरे बालसखा
जिनको मैंने सर चढ़ा रखा
जीवन भर जिनका रखा ख्याल
की सेवा अच्छी ,देखभाल
वो भूल गये सब नाते को
और आता देख बुढ़ापे को
उनने रंग बदला ,बुरे वक़्त
उनका सफ़ेद हो गया रक्त
जो काले थे और मतवाले
हो गए श्वेत अब वो सारे
रंग बदल ,बताते है ये सब
ये बूढा जवां नहीं है अब
मन को लगता है ठगा ठगा
जब अपनों ने दे दिया दगा
वे  परम मित्र कुछ बचपन के
जो सदा रहे प्रहरी बनके
मेरे मुख  में था  वास किया
मेरे संग संग हर स्वाद लिया
जैसा जब जब भी हुआ वक़्त
जो कुछ भी पाया नरम,सख्त
हमने मिलजुल कर, था काटा
 आपस में स्वाद ,सभी बांटा
जो दोस्त ,सखा ,हमराही थे
मेरे मजबूत सिपाही थे
उन सबकी भी हिल गयी जड़ें
जब वृद्ध उमर के पैर पड़े
वह शान ,अडिगता वीरोचित
अब नहीं बची उनमे किंचित
कुछ टूट गए ,कुछ है जर्जर
मैं नकली दांतो पर निर्भर
वैसे ही बचपन की साथी
दो आँखें प्यारी ,मुस्काती
जिनमे मैंने ,देखे सपने
और रखे बसा कर थे अपने
देखा जो बुढ़ापा ,घबराई
अब है धुंधलाई ,धुंधलाई
वह तनी त्वचा ,मेरे तन की
चिकनी और कोमल ,मख्खन सी
पर जब आयी वृद्धावस्था
उसकी भी हालत है खस्ता
वह जगह जगह से सिकुड़ गयी
झुर्री बन कर के उभर गयी
तो बचपन के साथी जितने
जिन पर हम गर्वित थे इतने
उनने जो बुढ़ापे को देखा
उसके आगे माथा टेका
वो सब जो मित्र कहाते है
व्यवहार विचित्र दिखाते है
अपनों का रंग बदलता है
बस मन को ये ही खलता है
बेटी बेटे ,नाती ,पोते
जो सगे  तुम्हारे है होते
बूढा होता जब हाल जरा
वो भी ना रखते ख्याल जरा
व्यवहार सभी का बदलाया
मैंने भी त्यागी  मोह माया
हिल गए दांत ,मैं नहीं हिला
ना ही बालों सा रंग बदला
आँखों जैसा ना धुंधलाया
और ना ही त्वचा सा झुर्राया
सब रिश्ते नाते गया भूल
और परिस्तिथि केअनुकूल
समझौता कर हालातों से
लड़ कर अपने जज्बातों से
अपने मन माफिक ,ठीक किया
खुश रह कर जीना सीख लिया
कोई की भी परवाह नहीं
अब रहे अधूरी ,चाह नहीं
मस्ती से खाता पीता  हूँ
इस तरह बुढ़ापा जीता हूँ

मदन मोहन बाहेती'घोटू '
लक्ष्मी जी की प्रिय मिठाई

मैंने बड़ी गौर से देखा ,अबकी बार दिवाली में
कई मिठाइयां सजी हुई थी ,पूजा वाली थाली में
लड्डू ,बर्फी, काला जामुन ,गुझिया और जलेबी थी
बातें करती, बता रही सब ,अपनी अपनी खूबी थी
लड्डू बोला ,मैं लक्ष्मी प्रिय ,रहता सदा लुढ़कता हूँ
मैं भी लक्ष्मीजी के जैसा ,एक जगह ना टिकता हूँ
बरफी बोली ,मैं सुन्दर हूँ ,सबसे अलग निराली हूँ
नये नोट की गड्डी जैसी ,लक्ष्मी जी की प्यारी हूँ
कालाजामुन बोला ,लक्ष्मी ,का एक रूप मेरे जैसा
सभी जगह पर राज कर रहा ,मुझ जैसा काला पैसा
गुझिया बोलै ,मावा मिश्री ,मेरे अंदर स्वाद छिपा
जैसे पैसा छिपा तिजोरी में,प्रतीक मैं लक्ष्मी का
कहा जलेबी ने सुडौल सब ,अष्टावक्र मेरी काया
लेकिन जिसने मुझको खाया ,मज़ा स्वाद का है पाया
सीधी  राह न आये लक्ष्मी ,टेढ़ी मेढ़ी चाल चलो
तभी लक्ष्मी का सुख पाओ ,खुद को आप निहाल करो
लक्ष्मी पाने का पथ मुझसा ,तब रस मिलता सुखदायी
लक्ष्मी के प्रिय पकवानो में ,जीत जलेबी ने पायी

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '



 

शुक्रवार, 13 नवंबर 2020

प्रकृति का चक्र -बुढ़ापा

यह प्रकृति का चक्र बुढ़ापा ,इसको कोई रोक ना पाया
लाख कोशिशें की ना आये ,पर जब आना था ,ये आया

प्राणायाम किया कसरत की ,सुबह शाम ,मैं भागा ,दौड़ा
खान पान  पर किया नियंत्रण मीठा और तला सब छोड़ा
रोज रोज जिम में जाकर के ,बहा पसीना ,ये कोशिश  की ,
मेरे तन पर ,चढ़ ना पाए ,चर्बी और मोटापा  थोड़ा
मैंने सभी प्रयास कर लिए
भूखे रह उपवास कर लिए
तरह तरह के योगआसन कर ,अपने तन को बहुत सताया
लाख कोशिशें की ,ना आये, पर जब आना था ये आया

कामनियों की संगत छोड़ी ,भले कामनाएं ना छूटी
मैं अब भी जवान हूँ,मन को ,देता रहा तसल्ली झूंठी
लेकिन तन में धीरे धीरे ,पैठ बनाता रहा बुढ़ापा ,
किया भले ही च्यवनप्राश का सेवन ,खाई जड़ी और बूटी
मैंने स्वर्ण भस्म भी खाई
खिली न पर काया मुरझाई
किये सभी उपचार लगन से ,लोगों ने जो भी बतलाया
लाख कोशिशें की ना आये ,पर जब आना था ,ये आया

अब जल्दी आती थकान है ,बात बात होती झुंझलाहट
कंचन काया पिघल रही है ,तनी त्वचा में है कुम्हलाहट
तन का जोश हुआ सब गायब ,और व्याधियां आसपास सब ,
याददाश्त कमजोर हो रही ,वृद्धावस्था की ये आहट
मन में रहती सदा विकलता
अब बच्चों पर रौब न चलता
इतनी जल्दी भूल गए सब ,मेरा इतना करा कराया
लाख कोशिशें की ना आये ,पर जब आना था ये आया

बेहतर होगा खुल्ले दिल से ,करें बुढ़ापे का हम स्वागत
बहुत कर लिया सब के खातिर ,अब अपने से करें मोहब्बत
काम धाम की तज चिंताएं ,मस्ती काटें ,मौज मनाएं
सैर सपाटा करके देखें ,दुनिया में है कितनी रंगत
अपनी मनचाही सब करले
जीवन को खुशियों से भर लें
अपने पर भी खर्च करें हम ,जीवन में इतना जो कमाया
लाख कोशिशें की ना आये ,पर जब आना था ये आया

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
 

 

मंगलवार, 10 नवंबर 2020

घर की रोटी

आप भले माने ना माने ,पर ये सच्ची ,खरी बात है
कितना इधरउधर मुंह मारो ,घर की रोटी लगे स्वाद है

यूं तो इस सारी दुनिया में ,पकवानो की कमी नहीं है
कई दावतें हमने खाई ,लेकिन उतनी जमी नहीं है
बाकी सब तो ललचाते है ,पर जो रोज रोज मुंह लगती
घर की रोटी ही सच पूछो ,तो है पेट हमारा  भरती
खालो तुम पकवान सैंकड़ो ,पर मिलता आल्हाद नहीं है
दुनिया में घर की रोटी से  ,बढ़ कर कोई स्वाद नहीं है
नरम नरम हाथों से बीबी ,देती गरम गरम जब फुलके
बिना कोई संकोच ,सलीके ,हम खाया करते है खुल के
घर के भोजन में मिलता है ,स्वाद प्यार का ,अपनेपन का
तन मन को तृप्ति देता है ,क्या कहना घर के भोजन का
सुख मिलता जब मियां बीबी ,मिल कर खाते साथ साथ है
कितना इधर उधर मुंह मारो ,घर की रोटी लगे स्वाद है

इसी तरह गोरी या काली ,दुबली पतली हो या हथिनी
इस दुनिया में प्यारी लगती सबको अपनी अपनी पत्नी
क्योंकि एक वो ही जो तुमको ,प्यार करे है सच्चे दिल से
इतना अधिक चाहने वाला ,नहीं मिल सकेगा मुश्किल से
जो निर्जल रह कर व्रत करती ,करवा चौथ ,तुम्हारे खातिर
ताकि सुहागन बनी रहे वो ,लम्बी उम्र तुम्हे हो हासिल
तुम्हारे सुख दुःख में शामिल ,साथ निभाती जो जीवन भर
जो तुम्हारी पूजा करती ,तुम्हे मान कर  पति परमेश्वर
ऐसा सच्चा जीवन साथी ,पा सबको होता गरूर है
मिले ना मिले जन्नत में पर, इस जीवन में वही हूर है
सुन्दर लोग कई दिखते है ,पर पत्नी की अलग बात है
प्यारी लगती घरवाली ज्यों ,घर की रोटी लगे स्वाद है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
 
आयुष की प्रेम गाथा

सीधा सादा हमारा ,यह आयुष कुमार
बैंगलोर में  जा हुए  ,इसके नयना चार
इसके नयना चार ,किसी ने ऐसा लूटा
मन में पहली बार ,प्रेम का लड्डू फूटा
दिल को भायी दीपिका काजू कतली जैसी
इन्दौरी पोहे संग  आयी  गरम जलेबी

आयुष के मन में खिले ,फूलझड़ी के फूल
प्रेम पटाखा बज गया ,मौसम के अनुकूल
मौसम के अनुकूल ,आयी ऐसी दीवाली
दिल मे दीप  प्रेम का जला गयी दिलवाली
प्रेम रश्मि से किया दीपिका ने दिल रोशन
'घोटू 'जगमग आज हो रहा मन का आंगन

मंजू मन उल्लास है ,बनी बहू की सास
बेटा घोड़ी चढ़ेगा ,आया मौका ख़ास
आया मौका ख़ास ,बहुत जगदीश प्रफुल्लित
बेटे का घर बसा ,बहुत मन है आनंदित
रितू ने भाभी पायी ,रिया ने पायी मामी
हर्षित चाचा ,ताऊ ,और खुश नाना नानी

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
 

शुक्रवार, 6 नवंबर 2020

नेताजी और कुर्सी

मैं  बोला  यह  नेताजी से
कब तक चिपकोगे कुर्सी से
देखो अपनी बढ़ी उमर को
किसी और को भी अवसर दो

बात सुनी ,बोले नेताजी
इससे चिपक ,रहूँ मैं राजी
मुझे सुहाती इसकी संगत
चेहरे पर रहती है  रंगत

इसके कारण ,सांझ सवेरे
चमचे मुझको रहते घेरे
ये छूटी ,सब मुंह फेरेंगे
मुझको बिलकुल भाव न देंगे

परम भक्त हूँ ,मैं कुर्सी का
इसी भावना से हूँ चिपका
इससे मुझको बहुत मोहब्बत
मुझे चिपकने की है आदत

बचपन चिपक रहा मैं  माँ से
और जवानी ,मेहबूबा से
अब कुर्सी से रहता चिपका
ये ही माँ ,ये ही मेहबूबा

चिपक रहूंगा ,इससे तब तक
हो जाता तैयार न जब तक
मेरा बेटा ,वारिस बन कर
जो बैठेगा ,इस कुर्सी पर

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

बुधवार, 4 नवंबर 2020

प्रभु ,बुढ़ापा ऐसा देना

प्रभु ,बुढ़ापा ऐसा देना
हलवा पूरी गटक सकूं और चबा सकूं मैं चना चबैना
प्रभु ,बुढ़ापा ऐसा देना

मेरे तन की शुगर ना बढे ,रहे मिठास जुबाँ की कायम
तन का लोहा ठीक रहे और मन में लोहा लेने का दम
चलूँ हमेशा ही मैं तन कर ,मेरी कमर नहीं झुक पाये
यारों के संग,हंसी ठिठौली ,मिलना जुलना ना रुक पाये
जियूं मस्त मौला बन कर मैं ,काटूँ अपने दिन और रैना
प्रभु ,बुढ़ापा ऐसा देना

भले आँख पर चश्मा हो पर टी वी और अखबार पढ़ सकूं
जवाँ हुस्न ,खिलती कलियों का,छुप छुप कर दीदार कर सकूं
चाट पकोड़ी ,पानी पूरी ,खा पाऊं ,लेकर चटखारे
बिमारियां और कमजोरी ,फटक न पाये पास हमारे
सावन सूखा ,हरा न भादौ ,रहे हमेशा मन में चैना
प्रभु ,बुढ़ापा ऐसा देना

मेरी  जीवन की शैली पर ,नहीं कोई प्रतिबंध लगाये
जीवनसाथी साथ रहे और संग संग हम दोनों मुस्काये
नहीं आत्म सन्मान से कभी ,करना पड़े कोई समझौता
बाकी तो फिर ,लिखा भाग्य में ,जो होना है ,वो ही होता
करनी ऐसी करूँ ,गर्व से ,मिला सकूं मैं सबसे नैना
प्रभु ,बुढ़ापा ऐसा देना

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
करारापन लिए तन है
भरा मिठास से मन है
सुनहरी इसकी रंगत है
बड़ी माशूक तबियत है
नज़र पड़ते ही ललचाती
हमारे मन को  उलझाती
बहुत ही प्रिय ये सबकी है
गरम हो तो गजब की है
बड़ा इसमें है आकर्षण
लुभा लेती है सबका मन
हसीना ये बड़ी दिलकश
टपकता तन से यौवन रस
बड़ी कातिल ,फरेबी है
मेरी दिलवर ,जलेबी है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

मंगलवार, 3 नवंबर 2020

थोंपा गया नेता

पिताश्री के नाना की ,आखिरी विरासत
बार बार जनता नकारती ,मैं हूँ आहत
जो भी मेरे मन में आता ,मैं बक देता
थोंपा गया पार्टी पर जो, मैं वह  नेता

 कुछ चमचे है ,भीड़ सभा में जुड़वा  देते
कुछ चमचे है ,जो ताली है ,बजवा देते
कुछ चमचे ,क्या कहना है ,ये सिखला देते
कुछ चमचे ,टी वी पर खबरे ,दिखला देते
कुछ चमचे ,मस्जिद और दरगाहें ले जाते
कुछ चमचे मंदिर में है जनेऊ पहनाते
मैं पागल सा ,जो वो कहते ,सब करता हूँ
भरी धूप  और गरमी में ,पैदल चलता हूँ
मुझको कैसे भी रहना 'लाइम लाईट 'में
किन्तु हारता ही आया हूँ ,मैं  'फाइट'  में
आज इससे गठजोड़ और कल और किसी से
आज जिसे दी गाली ,कल है प्यार उसीसे
राजनीती में ,ये सब तो रहता है चलता
जब तक मन में है सत्ता का सपना पलता
कहता कोई अनाड़ी ,कोई पप्पू  कहता
लोगो का क्या ,जो मन चाहे ,कहता रहता  
किया नहीं है ब्याह ,अभी तक रहा छड़ा हूँ
कुर्सी खातिर ,घोड़ी पर भी नहीं चढ़ा हूँ
रोज रोज मैं कार्टून ,बनवाता अपना
मुझको पूरा करना है ,मम्मी का सपना
जब तक ना प्रधान बन जाऊं ,देश का नेता
तब तक कोशिश करता रहूँ ,चैन ना लेता
राजवंश में जन्म लिया  ये  ,मेरा हक़  है
क़ाबलियत पर मेरी लोगो को क्यों शक है
लोग मजाक उड़ाते,पर ना मन पर लेता
थोंपा गया पार्टी पर  जो , मैं वह नेता  

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

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