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शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

खूब "घुटा-लो" शीर्ष, खुदा तक चाहे जाओ ।।

खूब "घुटा-लो" शीर्ष, खुदा तक चाहे जाओ ।।

घमंडी की मंडी
जाओ जाना है जहाँ, लाओ फंदा नाप ।
मातु विराजे दाहिने, बैठा ऊपर बाप ।

बैठा ऊपर बाप, चित्त का अपने राजा ।
मर्जी मेरी टॉप, बजाऊं स्वामी बाजा ।

उच्च-उच्चतम दौड़, दौड़ कर टाँग बझाओ ।
खूब "घुटा-लो" शीर्ष, खुदा तक चाहे जाओ ।।

विरासतों

करें पुनर्निर्माण आओ ,

विरासतों के खँडहर का ,

भग्नावशेष अभी बाकी हैं ,

हमारी गौरवमयी परम्पराओं के ,

नए सिरे से सवांरें,

नव ऊर्जा का संचार भरें ,

प्राणहीन होती मानवीय संवेदनाएं ,

प्रेम के बदलते हुए अर्थ ,

अर्थ के लिए प्रेम की भावना ,

घातक स्वरुप धारण करें ,

उससे पूर्व जागृत हों ,

जागृत करें समाज को ,

स्वार्थ के घने तम को मिटायें ,

मानवीयता के प्रकाश से ,

करें आलोकित धरा को ,

राम की मर्यादा कृष्ण का ज्ञान,

मिलाकर करें पुनर्निर्माण

आओ विरासतों के खँडहर का |

रचनाकार-विनोद भगत

गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012

विडम्बना


एक तरफ बनाकर देवी,
पूजते हैं हम नारी को,
भक्ति भाव दर्शाते हैं,
बरबस सर नवाते हैं,
माँ शारदे के रूप में कभी
ज्ञान की देवी बताते हैं,
तो माँ दुर्गा के रूप में उसको,
शक्ति रूपा ठहराते हैं |

दूसरी तरफ वही नारी,
हमारी ही जुल्मो से त्रस्त है,
कुंठित सोच की शिकार है,
कहीं तेजाब का वार सहती है,
कही बलात्कार का दंश झेलती है,
कही दहेज के लिए जलाई जाती है,
कही शारीरिक यातनाएं भी पाती है;
तो कही जन्म पूर्व ही,
मौत के घाट उतारी जाती है |

एक तरफ तो दावा करते,
हैं सुरक्षित रखने का;
दूसरी तरफ वो नारी ही,
सबसे ज्यादा असुरक्षित है |

क्या अपने देवियों की रक्षा,
अपने बूते की बात नहीं ?
क्या समाज के दोहरी नीति की,
मानसिकता की ये बात नहीं ?

तुम जिन्दा हो

पास हो मेरे ये कितनी
बार तो बतला चुके तुम !
कौन कहता जा चुके तुम ?

आँख जब धुंधला गई तो
मैंने देखा
तुम ही उस बादल में थे ,
और फिर बादल नदी बन
बह चली थी ,
नेह की धरती भिगोती
और मेरी आत्मा हर दिन हरी होती गई !
उसके पनघट पर जलाए
दीप मैंने स्मृति के !
झिलमिलाते मुस्कुराते
तुम नदी के जल में थे !
जब भी दिल धडका मेरा तब 
तुम ही उस हलचल में थे !

तुम चले आते हो छत पर
रात का श्रृंगार करने
चाँद बनकर
और सूरज को सजाते हो
उजालों से !
जगाते हो मुझे शीतल चमकती-
रोशनी की उँगलियों से !

बृक्ष की छाया बने तुम
जब दुखों के जेठ में
मैं जल रहा था !
सोख लेते हो तपिस
तुम दोपहर के सूर्य की भी !

मैं तेरी आवाज सुनता हूँ
हवा की सरसराहट में !
और ये ऋतुएं तुम्हारे  
नाम की चिट्ठी मुझे
देती रही है !
मैंने भी जो खत लिखे
तेरे लिए
हर शाम
नदियों के हवाले कर दिया है !
मिल गए होंगे तुम्हे तो ?

अब जुदा हम हो न पाएँगे कभी भी ,
इस तरह अपना चुके तुम !
कौन कहता जा चुके तुम ?

मर चुका हूँ मैं तुम्हारे साथ साथी
और तुम जिन्दा हो अब भी
इस ह्रदय में पीर बनकर
इस नयन में नीर बनकर !

.................................. अरुन श्री !

बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

चबा के अपनी जेबों में हिंदुस्तान रखते हैं

सीमाओं पर ये फौजी अपनी हथेली पे जान रखते हैं
अजीब सरफिरे हैं जो खुद को वतन पे कुर्बान करते हैं |

खुश रहे सलामत रहे उनके वतन का आम-ओ खास
गजब हैं फौजी कितना असल खुदका ये इमान रखते हैं |


उन्हें क्या पता की कैसे कैसे देश में हुक्मरान रहते हैं
जो चबा -चबा के अपनी जेबों में हिंदुस्तान रखते हैं |

मेरे देश में ये कैसी हवाएं चली है आजकल दोस्तों
वतन के गद्दार ही यहाँ फ़ौज पर शासन करते हैं |

अब सजा के क्या क्या बेचोगे "अमोल" यहाँ तुम
पंडित-मुल्ला भी यहाँ जेबों में कफ़न लिए घूमते हैं |

(यह रचना "काव्य संसार" फेसबुक समूह से ली गयी है ।)

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