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गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012

विडम्बना


एक तरफ बनाकर देवी,
पूजते हैं हम नारी को,
भक्ति भाव दर्शाते हैं,
बरबस सर नवाते हैं,
माँ शारदे के रूप में कभी
ज्ञान की देवी बताते हैं,
तो माँ दुर्गा के रूप में उसको,
शक्ति रूपा ठहराते हैं |

दूसरी तरफ वही नारी,
हमारी ही जुल्मो से त्रस्त है,
कुंठित सोच की शिकार है,
कहीं तेजाब का वार सहती है,
कही बलात्कार का दंश झेलती है,
कही दहेज के लिए जलाई जाती है,
कही शारीरिक यातनाएं भी पाती है;
तो कही जन्म पूर्व ही,
मौत के घाट उतारी जाती है |

एक तरफ तो दावा करते,
हैं सुरक्षित रखने का;
दूसरी तरफ वो नारी ही,
सबसे ज्यादा असुरक्षित है |

क्या अपने देवियों की रक्षा,
अपने बूते की बात नहीं ?
क्या समाज के दोहरी नीति की,
मानसिकता की ये बात नहीं ?

बुधवार, 28 सितंबर 2011

रावण दहन


खुद ही बनाते हैं, खुद ही जलाते हैं,
यूँ कहें कि हम अपनी भड़ास मिटाते हैं |

समाज में रावण फैले कई रूप में यारों,
पर उनसे तो कभी न पार हम पाते हैं |

रावण दहन के रूप में एक रोष हम जताते हैं,
समाज के रावण का खुन्नस पुतले पे दिखाते हैं |

उसी रावण की तरह होता है हर एक रावण,
पुतले की तरह हर रावण को हम ही उपजाते हैं |

हर भ्रष्टाचारी, व्यभिचारी एक रावण ही तो है,
यहाँ तक कि हम सब अपने अंदर एक रावण छुपाते हैं |

इन सब से मुक्ति शायद बस की अब बात नहीं,
इसलिए रावण दहन कर अपनी भड़ास हम मिटाते हैं |

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