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रविवार, 31 जनवरी 2016

गुमसुम सा ये शमाँ क्यों है

गुमसुम सा ये शमाँ क्यों है,
लफ्जों में धूल जमा क्यों है,
आलम खामोशी का कुछ कह रहा,
अपनी धुन में सब रमा क्यों है..

डफली अपनी, अपना राग क्यों है,
मन में सबकी एक आग क्यों है,
कशमकश में है हर एक शख्स यहाँ,
रिश्तों में अब घुला झाग क्यों है..

हर आँख यहाँ खौफ जदा क्यों है,
मुस्कुराने की वो गुम अदा क्यों है,
भीड़ में रहकर खुद को न पहचाने,
खुद से ही सब अलहदा क्यों है..

एक होकर भी वो जुदा क्यों है,
आत्मा देह में गुमशुदा क्यों है,
पाषाण सा हृदय हो रहा है सबका,
तमाशबीन देख रहा खुदा क्यों है..

"प्रदीप कुमार साहनी"

शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

इक नई दुनिया बनाना है अभी

आज फिर से, एक नया सा, स्वप्न सजाना है अभी,
आज फिर से, इक नई दुनिया बनाना है अभी |

कह दिया है, जिंदगी से, राह न मेरा देखना,
खुद ही जाके, औरों पे, खुद को लुटाना है अभी |

साख पे, बैठे परिंदे, हिल रहे हैं खौफ से,
घोंसला उनका सजा कर, डर भागना है अभी |

लग गई है, आग अब, दुनिया में देखो हर तरफ,
बाँट कर, शीत प्रेम फिर से, वो बुझाना है अभी |

जा रहा है, वह मसीहा, रूठकर हम सब से ही,
रोक कर उसका पलायन, यूँ मनाना है अभी |

दिख रहे, सोये हुए से, जाने कितने कुम्भकरण,
पीट कर के, ढोल को, उनको जगाना है अभी |

देखती, माँ भारती, आँखों में लेके, अश्रु-सा,
सोख ले, उन अश्क को, कुछ कर दिखाना है अभी |

राह को हर, कर दे रौशन, रख दूं ऐसा "दीप" मैं,
आज फिर से, इक नई दुनिया बनाना है अभी |

शुक्रवार, 25 जनवरी 2013

कर तो लो आराम


रंजिश में ही बीत गई है तेरी तो हर शाम,
छुट्टी लेकर बैर भाव से, कर तो लो आराम |

आपा-धापी, भागम-भाग में,
ठोकर खाकर, गिर संभलकर,
कभी किसी की टांग खींचकर,
कभी गंदगी में भी चलकर |

यहाँ से वहाँ दौड़ के करते, उल्टे सीधे काम,
छुट्टी लेकर भाग-दौड़ से, कर तो लो आराम |

कभी किसी की की खुशामद,
कभी कहीं अकड़ कर बोले,
कभी कहीं पे की होशियारी,
कहीं-कहीं पे बन गए भोले |

बक-बक में ही गुजर गया, जीवन हुआ हराम,
छुट्टी लेकर शोर-गुल से, कर तो लो आराम |

वक्त बेवक्त अपनों की सोची,
सबके लिए बस लगे ही रहे,
झूठ-सच की करी कमाई,
पर पथ में तुम जमे ही रहे |

       अपनों के लिए पीते ही रहे, स्वाद स्वाद के जाम,
       कुछ वक्त खुद को भी देकर, कर तो लो आराम |

रविवार, 16 दिसंबर 2012

गम लिया करते हैं


दाव में रखकर अपनी जिंदगी को हर वक़्त हर घड़ी,
सहम-सहम के लोग आज ये जिंदगी जिया करते हैं |

सौ ग्राम दिमाग के साथ दस ग्राम दिल भी नहीं रखते लोग,
विरले हैं जो आज भी हर फैसला दिल से किया करते हैं |

बच्चे को आया के हवाले कर, पिल्ले को रखते हैं गोद में,
कहते हैं आज के बच्चे माँ-बाप का साथ नहीं दिया करते हैं |

एक दिन फेंकी थी तुमने जो चिंगारी मेरे घर की ओर,
आग बना कर उसे हम आज भी हवा दिया करते हैं |

अपनी अपनी कर के जी लेते हैं जिंदगी किसी तरह,
स्वार्थ की बनी चाय ही सब हर वक़्त पिया करते हैं |
अब तो ये चाँद भी आता है लेकर सिर्फ आग ही आग,
फिर क्यों सूरज से शीतलता की उम्मीद किया करते हैं |


सब हैं खड़े यहाँ कतार में जख्म देने के लिए ऐ "दीप",
कोई भरता नहीं हम खुद ही जख्मों को सिया करते हैं |

अपना तो जिंदगी जीने का फंडा ही अलग है ऐ "दीप",
कोशिश रहती खुशियाँ देने की और गम लिया करते हैं |

बुधवार, 21 नवंबर 2012

गुमशुदा


रहता है सबके आस-पास ही
फिर भी न जाने कैसे
हो ही जाता है सबका
कभी न कभी कुछ न कुछ-
गुमशुदा |

इस भेड़ चाल के दौर में,
सब कुछ है गुमशुदा;
इसका भी कुछ गुमशुदा,
उसका भी कुछ गुमशुदा |

किसी का ईमान गुमशुदा,
किसी का जहान गुमशुदा;
गुमशुदा है अपने ही अंदर की अंतरात्मा,
जीवित होके भी जान गुमशुदा |

जीवन से बहार गुमशुदा,
किसी का संस्कार गुमशुदा;
गुमशुदा है हृदय के अंदर का बैठा वो भगवान,
तलवार तो है पर धार गुमशुदा |

मतिष्क से एहसास गुमशुदा,
हृदय से जज़्बात गुमशुदा;
गुमशुदा है मानव के अंदर की मानवता,
जुबान तो है ही पर मिठास गुमशुदा |

रिश्तों से विश्वास गुमशुदा,
अपनों पर से आस गुमशुदा;
गुमशुदा है पहले जो होता था परोपकार भाव,
एक दूजे के हृदय में आवास गुमशुदा |

नहीं है किसी को फिकर,
नहीं है किसी को खोज;
जो गुम हो गया वो गुम ही रहे,
जो एक बार गया वो सदैव के लिए-
गुमशुदा |

गुरुवार, 3 मई 2012

जिंदगी जिंदगी कहाँ

जिंदगी का काम ही है अनवरत चलते जाना,
ये जो रुक ही जाये तो जिंदगी जिंदगी कहाँ ;
लगा रहता है जिंदगी में लोगो का आना-जाना,
ना आये जाये कोई तो जिंदगी जिंदगी कहाँ |

माना कि सफ़र में कभी आंसू हैं निकलते,
और कभी होठों पे मुस्कान भी है आती;
खुशियाँ और गम है जिंदगी के ही पहलू,
दो पहलू ना हो तो जिंदगी जिंदगी कहाँ | 

माना कि हैं मिलते कांटे ही कांटे पथ में,
धुप्प-सा अँधेरा कभी दिखाई भी है पड़ता,
जाल फेंक कष्टों का परखती है जिंदगी,
जो संघर्ष न हो तो जिंदगी जिंदगी कहाँ |

मंगलवार, 31 जनवरी 2012

जिन्दगी को, एक हसीं अब, मोड़ देने जा रहा

आज अपने, सुप्त सपने, फिर जगाने जा रहा,
जिन्दगी को, एक हसीं, अब मोड़ देने जा रहा ।

चाहता हूँ, पतझड़ों में, चंद हरियाली भरुँ,
बंजरों में, आज फिर एक,बीज बोने जा रहा ।

देख लेंगे, तेज कितना, टिमटिमाते "दीप" में है,
सख्त दरख्तों, में भी कोंपल, फिर फुटाने जा रहा ।

आए हैं वो, आज फिर से,बनके एक हमदर्द-सा,
जब मैं सारे, दर्द को,दिल से भुलाने जा रहा ।

पत्थरों को, घिस कर अब, आग जलती है नहीं,
आग जो, दिल में लगी, उसे अब बुझाने जा रहा ।

देखा है खुद, गैरों को, अपनो के साये में ढले,
फूलों से अब, काँटों को चुन-चुन हटाने जा रहा ।

हो गया अब, आँसुओं से, मुँह धोने का रसम,
जिंदगी को, जीतकर अब, जश्न मनाने जा रहा ।

बस हुआ, सपनों में गिरना, गिरते-गिरते दौड़ना,
अपने साये, पे अब अपना, हक जमाने जा रहा ।

सोच में हैं, वो कि हमसे, क्या कहे क्या न कहे,
मैं हूँ कि, उनकी हरेक, बातें भुलाने जा रहा ।

आँहे भरते, जीने का अब,वक्त पूरा हो चुका,
जिन्दगी को, एक हसीं अब, मोड़ देने जा रहा ।

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