हां, बिलकुल सही है
चोट लग जाने के बाद
सोच समझकर चलना,
दूध से जल जाने के बाद
छाछ भी फूंक - फूंक कर पीना...
लेकिन वो रास्ता ही छोड़ देना
जहां लगी हो चोट?
पीना ही छोड़ देना
दूध ही नहीं छाछ भी?
फिर कैसे जियोगे भला
सबकुछ छोड़ कर जिन्दगी?
चोट लगनी है तो
लग जायेगी कहीं भी - कैसे भी,
जलना है तो जल जाओगे
कहीं भी - कभी भी - कैसे भी,
चाहे जितने रहो सतर्क
चाहे जितने रहो चौकन्ने...
तो क्या बहुत ज्यादा सोचना
क्या बहुत ज्यादा विचारना
क्या बहुत ज्यादा पछताना
क्या बहुत ज्यादा दुखी होना
क्या बहुत ज्यादा उदास होना...
बड़े से बड़े हादसों के बावजूद
जिन्दगी की रफ्तार
हो सकता है कि थोड़ी धीमी हो जाये
जिन्दगी खुद थोड़ी लड़खड़ा जाये
पर रुकती कभी नहीं,
क्योंकि अगर रुक गई तो फिर
जिन्दगी जिन्दगी नहीं रहती...
इसलिये उठो -
खड़े होओ - आगे बढ़ो
एक सुनहरा कल बेताब है
तमाम खुशियां - तमाम सुकून
तमाम जश्न और तमाम मुस्कुराहटें,
तुम्हारे लिये साथ लिये...
- विशाल चर्चित
सार्थक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (13-01-2015) को अधजल गगरी छलकत जाये प्राणप्रिये..; चर्चा मंच 1857 पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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उल्लास और उमंग के पर्व
लोहड़ी की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
My a bat hai. Bahut umda.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ..
जवाब देंहटाएंसार्थक कहा—
जवाब देंहटाएंजीवन काटों से बच कर निकलना तो है
लेकिन---राहों को छोडना तो नहीं.