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बुधवार, 8 जुलाई 2015

जमे हुए रिश्ते

           जमे हुए रिश्ते

आजकल हालत हमारी ,इस तरह की हो रही है
रिश्ते ऐसे जम गए है ,जैसे जम जाता  दही है
नींद हमको नहीं आती ,उनको भी आती नहीं है
जानते हम ,हो रहा जो ,सब गलत कुछ ना सही है
हमारे रिश्तों में  पर    ऐसी दरारें पड़  गयी है
अहम का टकराव है ये ,दोष कोई का नहीं है
सो रहे हम मुंह फेरे,वो भी उलटी  सो रही  है
मिलन की मन में अगन पर ,जल रही वो वही है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

जीत का अंदाज

                 जीत का अंदाज          

हरेक चूहे में इतनी काबलियत कहाँ होती है ,
                 मिले एक कपडे की चिंदी ,और बजाज बन जाए
कभी भी जिसके पुरखों ने ,न मारी मेंढकी भी हो,
                 हिम्मती बेटा  यूं निकले  ,कि तीरंदाज  बन जाए
भरा मन में जो ज़ज्बा हो,अगर कुछ कर दिखाने का,
                    तो कायनात की सब ताकतें भी साथ देती है,
तुम्हारे हौंसले को फक्र  से सलाम सब बोलें,  
                    तुम्हारी जीत का कुछ इस तरह ,अंदाज बन जाए  

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

यादें -बरसात की

              यादें -बरसात की

हमको तो बारिश में भीगे ,एक अरसा हो गया ,
               मगर वो रिमझिम बरसता प्यारा सावन याद है
याद है वो नन्ही नन्ही ,बूंदों की मीठी चुभन ,
                      श्वेत  भीगे वसन से वो झांकता तन ,याद है
पानी में तरबतर तेरा थरथरा कर कांपना,
                     संगेमरमर से बदन की ,प्यारी सिहरन याद है
तेरी जुल्फों से टपकती ,मोतियों की वो लड़ी,
                      और भीगे से अधर का , मधुर चुम्बन  याद है
मांग से चेहरे बहती लाली वो सिन्दूर की,
                      आग तन मन में लगाता ,तेरा यौवन याद है
तेरे संग बारिश में मेरा ,छपछपा कर नाचना ,
                       आज भी मुझको वो अपना दीवानापन याद है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'   

सोमवार, 6 जुलाई 2015

शिकायत -प्रियतमा से

         शिकायत -प्रियतमा से

 मैं करता थोड़ी छेड़छाड़ ,तुम देती हो फटकार प्रिये
क्या   है ये अदा सताने की , या फिर तुम्हारा प्यार प्रिये
तुम नहीं पवन से कुछ कहती ,जो आँचल रोज उड़ाती है
टकराती तुमसे बार बार  और जुल्फों  को  सहलाती है
 है नहीं शिकायत तुमको जब,मदमाती बूँदें  बारिश की
तुम्हारा बदन भिगो देती ,दीवाने ,पागल आशिक़ सी
वो बाथरूम का    आइना ,अंग अंग निहारा करता है
जब सजती और संवरती हो ,वो तुमको ताड़ा करता है
वो तुम्हे देख कर हँसता है ,खींसे निपोर ,आवारा सा
पर उसे देख तुम मुस्काती ,वो लगता तुमको प्यारा सा
ये सब के सब ही खुले आम,करते है तुमसे छेड़छाड़
पर तुमको अच्छी लगती है,उनकी ये हरकत बार बार
क्या मुझमे कांटे उगे हुए ,जो बदन तुम्हारा छीलेंगे
या मधुमक्खी बन लब मेरे, तेरा सब अमृत पी लेंगे
जो पास न आती हो मेरे ,इतने नखरे दिखलाती हो
मेरी बाहों से छिटक छिटक ,तुम दूर दूर हट जाती हो
तुम पास आओ,मैं बारिश  बन,तेरा अंग अंग भिगा दूंगा
मैं ह्रदय आईने में अपने ,तुम्हारा अक्स दिखा दूंगा
मेरी साँसों की गरम हवा ,देगी तुम्हारे उड़ा होश
दूने रस से  भर जाएंगे  ,तुम्हारे मादक मधुकोश
तुम मुझे समर्पित हो जाओ,जी भर मुझसे अभिसार करो 
सुख  का संसार बसा  दूंगा, तुम मुझे प्यार,बस प्यार करो

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
 

रूढ़ियाँ

                        रूढ़ियाँ
प्रगति हमने बहुत कर ली ,हो रहे है आधुनिक,
              चन्द्रमा ,मंगल ग्रहों पर रखा हमने हाथ है
रूढ़िवादी सोच लेकिन और पुरानी भ्रांतियां ,
               आज भी चिपकी हुई,  रहती  हमारे साथ है
'रेड लाईट 'पर भले ही ,हम रुकें या ना रुकें,
                बिल्ली रास्ता काट देती,झट से रुक जाते है हम
कोई भी शुभ कार्य हो या जा रहे हो हम कहीं,
                 छींक जो देता है कोई ,तो सहम जाते   कदम
आधुनिक से आधुनिकतम ,सुरक्षित,सुविधाजनक ,
                  खरीदा करते कई लाखों की मंहगी  कार हैं
किन्तु पूजा करके नीबू चार लेकर सड़क पर,    
                   चार पहियों से दबाना  ,आज भी बक़रार है
शुभ मुहूर्त देखते रहते है और हर काम में,
                     दिशाशूलम,राहुकालम,आज भी है रोकता  
 आज भी हम ठिठक जाते और लगता है बुरा ,
                     निकलते जब कहीं जाने और कोई टोकता
काम यदि जो बन न पाये कुछ भी हो कारण भले ,
                    और यदि जो कुछ बुरा उस दिन हमारे संग हुआ
अपनी कमजोरी या कमियां ,कुछ नहीं आती नज़र ,
                      सुबह मुंह देखा था जिसका ,उसे  देते   बददुआ
ठेकेदारी धर्म की पण्डे और पंडित कर रहे , 
                        भागवत की कथाएं अब बन गयी व्यापार है
 कुटिल साधू  संत  के संग,चल रहा सत्संग है,
                        पुरानी सब संस्कृति  का ,हुआ  बंटाधार  है
ज्योतिषी  को जन्मपत्री ,हस्त रेखाएं दिखा ,
                        हम ग्रहों का शांति पूजन ,कराते  हर रोज है
महिमामंडित खुद को कितना भी करें हम शान से ,
                       सत्य यह ,अब भी हमारी ,बड़ी कुंठित सोच है
 सवेरे दूकान ,ठेले  और हर   शोरूम  पर ,
                      नीबू और मिर्ची पिरोये  ,लटकते  मिल जाएगे
हम कहाँ थे ,और कहाँ है और कहाँ तक जाएंगे ,
                      पर  पुरानी  मान्यताएं  ,क्या बदल हम पाएंगे             

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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