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रविवार, 14 अक्टूबर 2012

शिशु.


लो , अथाह भविष्य का एक निमिष
आ गया मेरे पास !
हाँ,आगत स्वयं बढ कर समा गया मेरी बाहों में !
*
यह शिशु,अपनी नन्ही मुट्ठियों मे ,
कसकर बाँधे है सारा भविष्य !
''मेरे शिशु ,क्या ले कर आए हो इस मुट्ठी में ?"
और मुंदी कली- सी अँगुलियाँ खोलना चाहती हूं ,
वह कस कर भींच लेता है !
*
हँस पढती हूं मैं -
कहाँ कोई देख पाया है आगत को ?
टक-टक देखता रहता है वह ,
अपनी गहन विचारपूर्ण दृष्टि से !
निस्पृह , निर्लिप्त , निर्दोष !
*
हमारी समझ से परे ,
रहस्यमय दृष्यों में खोया -
कभी रुआँसा ,कभी शान्त ,
कभी उज्ज्वल हँसी से आलोकित होता मुखमणडल!
*
और हम सारे काम - धन्धे छोड दौड पडते हैं ,
उस भुवन - मोहिनी मुस्कान को निहारने ,
उस दीप्त मुख के आनन्द-विभोर क्षण की आकांक्षा में !
*
जीवन को पढ़ने का ,मगन मन गढ़ने का ,
आगत को रचने के स्वर्णिम क्षण जीने का ,
मिला है अवसर -
लोरियाँ सुनाने का ,मुग्ध हँसी हँसने का !
*
हो जाऊँ चाहे अतीत ,
मै ही रहूंगी व्याप्त ,
अनगिन इन रूपों मे ,
सांसों मे सपनो मे !
*
मेरी ही चेतना की व्याप्ति यहाँ से वहाँ तक !
रोशनी का कण आँखों मे समा गया ,
जिसने उद्भासित कर दिया दिग् - दिगन्त को !
*
- प्रतिभा सक्सेना

5 टिप्‍पणियां:

  1. भावों से सजी बहुत ही उम्दा रचना |
    "काव्य का संसार" में आपका स्वागत है | अपनी अनमोल रचनाओं से इसे सुदृढ़ करती रहें |

    आभार |

    जवाब देंहटाएं
  2. बढ़िया प्रस्तुति |
    बधाई स्वीकारें ||

    जवाब देंहटाएं
  3. धीरेन्द्र अस्थाना9 नवंबर 2012 को 5:14 am बजे

    हो जाऊं चाहे अतीत
    मैं ही रहूंगी व्याप्त !
    सार्वभौमिक सत्य !

    जवाब देंहटाएं

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