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शुक्रवार, 13 जनवरी 2012

जल की अनंत यात्रा

जल की अनंत यात्रा
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बादलों में भरा हुआ जल,
जब पानी की बूंदों में बरसता है
तो धरती के दिल में आ बसता है
कुछ सहमा सहमा,
कुए की गहराई में सिमिट कर रह जाता है
कुछ सरोवर में तरंगें भरता है,
तो कुछ नदिया की कल कल में बह जाता है
और कुछ बेचारा,
मुसीबत का मारा,
ठिठुरता है सर्दी में,
और पहाड़ों की चोटियों पर ठहर जाता है
पर जब सूरज को दया आती है,
तो पहाड़ों की जमी बर्फ पिघल जाती है
और इतने दिनों का जमा जल ,जब पिघलता है
तो मचलता ,इठलाता हुआ चलता है
और जवानी के जोश में,
या कहो आक्रोश में,
कितने ही पहाड़ों को काट कर,
अपना रास्ता बनाता है
और अपना एक धरातल पाता है
और कल कल करता हुआ ,
अपनी मंजिल की ओर,
 निकल पड़ता है
पर कई बार ,उसको  ,
ऊंचे धरातल से ,
निचले धरातल पर गिरना पड़ता है
तो वो दहाड़ता है
अपने में सिमटी हुई ,चांदी उगलता है,
गर्जना करता है,
और छोटी छोटी बूंदों में बिखर बिखर,
फिर से ऊपर को उछालें मारता है
और उसे सूरज की कुछ किरणे,
इंद्र धनुष सा चमका देती है
कुछ क्षणों के लिए,सुहावना बना देती है
और फिर बेबस सा,
अपने नए धरातल पर,
धीरे धीरे ,अपनी पुरानी चल से चलने लगता है
कितने ही कटाव और बिखराव के बाद,
अंत में सागर में जा मिलता है
क्योंकि हर जल की नियति ,
सागर में विलीन होना ही होता है
और  फिर से बादल बन ,
जल की अनंत यात्रा का आरम्भ होता है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

गुरुवार, 12 जनवरी 2012

कन्यादान



मतलब क्या है इस कन्यादान का ?
क्या ये सीढ़ी भर है नए जीवन निर्माण का ?

या सचमुच दान ही इसका अर्थ है,
या समाज में हो रहा अर्थ का अनर्थ है ?

दान तो होता है एक भौतिक सामान का,
कन्या जीवन्त मूल है इस सृष्टि महान का ।

नौ मास तक माँ ने जिसके लिए पीड़ा उठाई,
एक झटते में इस दान से वो हुई पराई ?

नाजो-मुहब्बत से बाप ने जिसे वर्षों पाला,
क्या एक रीत ने उसे खुद से अलग कर डाला ?

जिस घर में वह अब तक सिद्दत से खेली,
हुई पराई क्योंकि उसकी उठ गई डोली ?

क्या करुँ मन में हजम होती नही ये बात,
यह प्रश्न ऐसे छाया जैसे छाती काली रात |

कौन कहता है कन्याएँ नहीं हमारा वंश है,
वह भी सबकुछ है क्यो.कि वह भी हमारा ही अंश है ।

कन्या 'दान' करने के लिए नहीं है कोई वस्तु,
परायापन भी नहीं है संगत, ज्यों कह दिया एवमस्तु ।

रेवड़ी

        रेवड़ी
मेरे दिल में मिठास है
कुछ खुशबू खास है
कड़क कुरमुरी हूँ
स्वाद से भरी हूँ
मुझसे लिपटे है जितने तिल
वो है मेरे चाहने वालो के दिल
सोने की अशर्फी हूँ
मोतियों से जड़ी हूँ
मै रेवड़ी हूँ
सर्दी की उष्मा हूँ
प्यार का उपहार हूँ
दिलों से लिपटा हुआ ,
मिलन का त्यौहार हूँ
जो खाता खिलाता है
बस ये ही चाहता है
मीठा खाओ ,मीठा बोलो
सब के मन में अमृत घोलो
महाराष्ट्र का तिल  गुड हूँ
यूपी की खिचड़ी हूँ
आसाम का बिहू
केरल का पोंगल और
पंजाब की लोहड़ी हूँ
मै रेवड़ी हूँ

....तो क्या बात हो

(२००वीं पोस्ट)
किताबों के पन्ने यूँ पलटते हुए सोचते हैं,
यूँ आराम से पलट जाए जिन्दगी तो क्या बात हो ।

तमन्ना जो पूरी होती है सिर्फ ख्वाबों में,
एक दिन हकीकत बन जाए तो क्या बात हो ।

शरीफों की शराफत में भी जो न हो बात,
कोई मयकश ही वो कह जाए तो क्या बात हो ।

कुछ लोग अकसर मतलब के लिए ढूँढते हैं मुझे,
कोई बस हाल पुछने ही आ जाए तो क्या बात हो ।

कत्ल करके तो सब ले लेंगे जान मेरी,
कोई बस लुभा के ही ले जाए तो क्या बात है ।

जिंदगी रहने भर तो खुशियाँ लुटाता ही रहुँगा,
कोई मेरी मौत से भी खुश हो जाए तो क्या बात हो ।

(यह रचना मूल रूप से मेरी नहीं है | अच्छी लगी तो हल्का फुल्का सुधार के साथ यहाँ प्रस्तुत कर दिया )

कुंड़लिया ----- दिलबाग विर्क


हाथी ढको नकाब से , आया है फरमान ।
है यू.पी. में चल रहा , चुनावी घमासान ।।
चुनावी घमासान , मदद मिले न सरकारी ।
ये चुनाव आयोग , दिखाता सख्ती भारी ।।
किए करोड़ों खर्च , नहीं बन पाया साथी  ।
था ये चुनाव चिह्न , इसीलिए ढका हाथी ।।

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