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मंगलवार, 28 अगस्त 2018

दर्द बदलते रहते है 
 

मन माफिक काम बनाने को ,सन्दर्भ बदलते रहते है 
होती है अलग अलग वजहें ,पर दर्द बदलते  रहते है 

उनके दो पुत्र हुए दोनों, थे अति कुशाग्र और पढ़े लिखे 
अच्छी सी मिली नौकरी तो ,भागे विदेश,घर नहीं  टिके 
है पिता वृद्ध , संतान मगर ,करती ना उनकी देख भाल 
बस यदा कदा ,कर दूरभाष ,वो पूछा करते हालचाल 
उनके मन में यह पीड़ा है ,एक पुत्र नलायक रह जाता 
जो रहता साथ बुढ़ापे में ,और उन्हें सहारा दे   पाता 
अपने जब पास नहीं रहते ,हमदर्द बदलते रहते है 
होती है अलग अलग वजहें ,पर दर्द बदलते रहते है  

उनकी पत्नी सीधी ,कर्मठ ,परिवार निभाने वाली है 
पर उनके मन में पीड़ा है ,वो गौरवर्ण ना ,काली है 
उनके सब मित्रों की पत्नी ,है सुन्दर,गौरी और स्मार्ट 
फैशन की पुतली ,बनीठनी ,बातों का आता उन्हें आर्ट 
पर उनके पति भी पीड़ित है ,लुटते है फैशन के मारे 
पत्नी रसोई तक में घुसे  ,है बहुत दुखी वो  बेचारे 
पत्नी कहती ,वैसा करते ,सब मर्द बदलते रहते है 
होती है अलग अलग वजहें ,पर दर्द बदलते रहते है 

वो सरकारी सेवा में थे ,ऊंचे ओहदे के अफसर थे 
थे कार्य कुशल और रौबीले ,सब करे उनका आदर थे 
थे बहुत अधिक ईमानदार ,रिश्वत से उनको नफरत थी 
ना गलत काम करते कोई ,सच्चाई जिनकी आदत थी 
जब हुए रिटायर ,महीनों तक पेंशन की फ़ाइल गयी अटक
कुछ ले देकर के मुश्किल से ,उनको मिल पाया ,अ पना हक़ 
जब खुद पर गुजरा करती है ,आदर्श बदलते रहते है 
होती है  अलग अलग वजहें ,पर दर्द बदलते रहते है 

थे  इन्द्रासन पर इंद्रदेव ,मन में न तनिक संतोष उन्हें 
वे  घिरे अप्सराओं से रहते ,कर सोमपान ,ना होंश उन्हें 
उनके मन में यह पीड़ा थी ,है वो की वोही अप्सरायें 
होती ना तृप्त लालसा थी ,नित स्वाद बदलना वो चाहें 
इसलिये तोड़ सब मर्यादा ,हो गए काम के अभिभूत 
धर गौतम भेष,अहिल्या का,छुप कर सतीत्व ,ले लिया लूट 
मन चाहा पाने ,बड़े बड़ों के ,कृत्य बदलते रहते है 
होती है अलग अलग वजहें ,पर दर्द बदलते रहते है 

मदन मोहन बाहेती ' घोटू '

सोमवार, 27 अगस्त 2018

केरल की त्रासदी पर 

देख तड़फता निज बच्चों को ,रोया तू भगवान तो होगा 
तूने इतना दर्द दिया है ,इसका कोई निदान  तो होगा 

तेरा अपना देश कहाता ,सुंदरता थी,हरियाली थी 
गाँव गाँव में समृद्धि थी ,गली गली में खुशहाली थी 
जिसकी एक बाजू सागर की ,लहरें उछल उछल धोती थी 
नारियल,केले और मसाले ,की घर घर  खेती होती थी 
वहां भला क्यों इतना ज्यादा ,अतिवृष्टि कर ,जल बरसाया 
वहां जलप्रलय सा लाकर के ,तूने सितम इस तरह ढाया 
क्या वो तेरे बंदे ना थे ,  क्यों थी  उनसे  यूं नाराजी 
नदियां उमड़ी ,बाढ़ आ गयी ,सभी तरफ छायी बर्बादी 
कीचड़ कीचड़ गाँव हो गए ,सड़क हो गयी टुकड़े टुकड़े 
कितने घर बरबाद  हो गए ,कितने घर में छाये दुखड़े 
कोई की माँ ,कोई बेटा ,कोई डूबा ,कोई बह गया 
कितनो का अरमान संजो कर, बनवाया आशियां ढह गया 
इनकी पीड़ा देख प्रभु तू ,खुद भी परेशान तो होगा 
तूने इतना दर्द दिया है  ,इसका कोई निदान तो होगा 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
हम सीधेसादे 'घोटू 'है 

ना तो कुछ लागलगावट है 
ना मन में कोई बनावट  है 
हम है सौ प्रतिशत खरी चीज,
ना हममे कोई मिलावट है
          हम सदा मुस्कराते रहते 
          हँसते  रहते , गाते  रहते 
         जियो और जीने दो सबको ,
         दुनिया को समझाते रहते 
कितना ही वातावरण भले ,
गंदा,दूषित ,दमघोटू  है 
हम सीधेसादे  'घोटू ' है 

ना  ऊधो से लेना  कोई 
ना माधो  का देना कोई 
है हमे पता जो बोयेंगे ,
हम काटेंगे फसलें वो ही 
        इसलिए सभी से मेलजोल 
        बोली में  मिश्री सदा घोल 
        हम सबसे मिलते जुलते है 
        दिल के दरवाजे सभी खोल 
ना  मख्खनबाज ,न चमचे है ,
ना ही चरणों पर लोटू  है 
हम सीधेसादे 'घोटू ' है 

मिल सबसे करते राम राम 
है हमे काम से सिरफ काम 
ना टांग फटे में कोई के ,
ना ताकझांक ना तामझाम 
           हम सीधी राह निकलते है 
           कुछ लोग इसलिए जलते है 
           है मुंह में राम ,बगल में पर ,
           हम छुरी न लेकर चलते है 
अच्छों के लिए बहुत अच्छे ,
खोटो के लिए पर खोटू  है 
हम सीधेसादे 'घोटू ' है 

मदनमोहन बाहेती 'घोटू '

गुरुवार, 23 अगस्त 2018

माँ अशक्त है 

सीधीसादी प्रतिमा एक सादगी की वह 
 श्वेत केश ,लगती एक साध्वी सी  वह 
मोहमाया से उसका मन थोड़ा विरक्त है 
हमको शक्ति देनेवाली  ,माँ अशक्त है 

ऊँगली पकड़ सिखाया हमको जिसने चलना 
ऊँगली पकड़ हमारी उसको पड़ता  चलना 
दिन भर जो थी व्यस्त काम में ,चलती फिरती 
विवश आज बिस्तर पर है वो ,उठती ,गिरती 
और दवा की गोली मुश्किल से  खाती  है 
इंजेक्शन का नाम लिया , घबरा जाती  है 
करना चाहे काम ,मगर ना उससे होता 
पर दिन भर लेटे आराम न उससे  होता 
छोटी छोटी जिद करती है बच्चों जैसी 
फल ना खाती,दूध न पीती ,बच्चों जैसी 
चौथाई ही रोटी खा पा रही  फ़क़्त  है 
हमको शक्ति देनेवाली ,माँ अशक्त है 

छूटा पूजा पाठ ,न रामायण ना गीता 
आँखे मूँद ,पड़े रहकर ,दिन करता बीता 
फिर भी जिद कर एकादशी का व्रत करती है 
सुबह चाय पहले नहाने की हठ करती है 
पानी भी अब गटकाने में होती मुश्किल 
आगे पाँव बढ़ा ,मुश्किल से सकती है हिल 
गाउन नहीं पहनती ,साड़ी ही पहनेगी 
कोई मिलने आये तो सर तुरंत ढकेगी 
मंद पड़  गयी उसकी आँखों की ज्योति है 
अब उसको सुनने में भी दिक़्क़त होती है 
अस्थि अस्थि दिखती ,तन में कम बचा रक्त है 
हमको शक्ति देने वाली माँ अशक्त है 

होकर के नाराज़ कभी जो थी चिल्लाती 
अब ज्यादा स्पष्ट शब्द भी बोल न पाती 
तन झुर्राया ,मुख कुम्हलाया ,सिकुड़ी आंतें 
इच्छा होती ,किन्तु नहीं कुछ बनता खाते 
थी विशालहृदया पर जबसे बिगड़ी सेहत 
उसका हृदय कामकरता बस बीस प्रतिशत 
बिमारी में बदन  इस तरह टूट गया है 
धरम करम और पूजा करना छूट गया है 
याद पुरानी बातें उसको रहती सारी 
बेटी बेटे ,नाती पोते  सबकी प्यारी 
अब भी अपने सिद्धांतों पर ,मगर सख्त है 
हमको शक्ति देनेवाली ,माँ अशक्त है 

कोई आता ,स्वागत करती है मुस्काके 
स्थिरप्रज्ञ पड़ी रहती है ,खोले आँखें 
नहीं किसी से अब वो करती टोका टाकी
सिर्फ दो बरस ,उम्र शतक करने में बाकी  
जिसने सबके जीवन को ऊष्मा दी ,तपकर 
वही सूर्य अस्ताचल को हो रहा अग्रसर  
हम सब करें प्रार्थना ,सच्चे दिल से चाहें 
उनका सौवाँ जन्मदिवस मिल सभी मनायें 
रहे स्वास्थ्य भी ठीक ,हमेशा वो मुस्कायें  
हम पर आशीर्वादों की बारिश बरसायें 
हमें छत्रछाया दी जिसने ,माँ वो दरख्त है 
हमको शक्ति देनेवाली ,माँ अशक्त है 

मदन मोहन बाहेतीघोटू '



बुधवार, 22 अगस्त 2018

युगे युगे 

तुमने जब पाषाण हृदय बन ,टाला मेरा प्रणय निवेदन ,
लगा वही पाषाण युग मुझे 
तुम भी ठंडी ,मैं भी ठंडा ,ठन्डे थे दोनों के  तन  मन ,
हिमयुग सा ही लगा ये भुझे 
नीलगगन में ,जब उड़ते  हम,फैला कर के दोनों के पर ,
तब  लगता ,द्वापर युग आया 
मेरी बात टाल देती थी तुम हरदम ,बस कल कल कह कर   
तब लगता था कलयुग छाया 
जब थी  तुम ,उन्मुक्त हृदय से ,मुझ पर थी निज प्यार लुटाती,
तब तब रीतिकाल था आता 
मेरी लम्बी उमर रहे इसलिए ,व्रत रखती तुम ,कुछ ना खाती ,
तब वह भक्तिकाल कहलाता 
वृक्ष तनो से , तन टकराते  , आग निकल कर हमें जलाती ,
तब वह होता दावानल था 
तुम समुद्र में भीग नहाती  ,और मेरे मन   आग लगाती ,
तब वह होता बढ़वानल  था 
कितने युग और काल इसतरह ,हमने तुमने ,मिलजुल करके ,
हँसते हँसते ,संग संग काटे 
प्रेमानल और विरहानल में ,जल जल कर के निखर गए हम ,
मिल कर अपने सुख दुःख बांटे 
तुमने जीवन के पल पल में ,बाँध मुझे अपने आँचल में ,
युग युग का आभास कराया 
अपने युगल ,कमल नयनो से ,प्रेमामृत की वर्षा कर कर ,
मेरे जीवन को सरसाया 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

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