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शनिवार, 18 अगस्त 2018

बदलता वक़्त 

वक़्त की बेरूखी,
सबको करती दुखी ,
हर चमन में ,बहारें न रहती सदा 
है अगर सुख कभी 
आते दुःख भी कभी 
है कभी सम्पदा तो कभी आपदा 
देख कहते सुमन 
काहे इतराता मन 
आके मधुमख्खियाँ ,रस चुरा लेंगी सब 
लोग लेंगे शहद,
मोम छत्ते का सब ,
जब बनेगा शमा ,ढायेगा वो गजब 
फूल की ये महक ,
मोम की बन दहक 
नाश करती पतंगों का है सर्वदा 
वक़्त की बेरुखी 
करती सबको दुखी ,
हर चमन में बहारे न रहती सदा 
रोज सूरज उगे 
हो प्रखर वो तपे ,
ढलना पड़ता है लेकिन उसे शाम को 
चाहे राजा है वो 
या भले रंक हो ,
मौत ने बक्शा है ,कौन इंसान को 
कर्म अपने करो 
पाप से तुम डरो ,
हो परेशानियां ,मत रहो गमज़दा 
वक़्त की बेरुखी 
करती सबको दुखी ,
हर चमन में बहारे न रहती सदा 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

बुधवार, 15 अगस्त 2018

नमन् उन्हें जो आजादी की खातिर सबकुछ भूल गये...


नमन् उन्हें जो आजादी की
खातिर सबकुछ भूल गये,
हँसते-हँसते 'जय हिन्द' बोला
और फाँसी पर झूल गये...

नमन् उन्हें जो सबकुछ था पर
देश की खातिर छोड़ दिया,
आजादी दी, सत्ता सौंपी
और दुनिया को छोड़ दिया...

नमन् उन्हें कि जो सीमा पर
प्रहरी बनकर रहते हैं,
देश सुरक्षित रहे इसलिये
हर दुख सहते रहते हैं...

नमन् उन्हें जो गश्त पे रहते
हर मौसम - हर हाल में,
जो समा गये जनता की खातिर
स्वयं काल के गाल में...

नमन् उन्हें जो देश को लाये
आजादी के बाद यहाँ तक,
मुश्किल हालातों से उबारा
आबादी को आज यहाँ तक...

नमन् उन्हें जो देश का परचम
पूरी दुनिया में लहरा आये,
नमन् उन्हें जो अंतरिक्ष में भी
अपना तिरंगा फहरा आये...

नमन् उन्हें जो अपने क्षेत्र में
करते अर्जित सदा विशेष,
नमन् उन्हें जो देश को हर दिन
करते अर्पित सदा विशेष...

नमन् उन्हें जो करते कार्य
जाति-धर्म से ऊपर उठकर,
कोई मुसीबत में ये दौड़ते
निज स्वार्थ से ऊपर उठकर...

नमन् उन्हें जो अपने अलावा
और्रों के बारे में भी हैं सोचते,
किसी ना किसी तरह देश को
हैं सुदृढ़ करते और जोड़ते...

नमन् उन्हें जो ये 'चर्चित' का
संदेश पढ़ेंगे - सोचेंगे,
देश के लिये सही मार्ग पर
पूरे जोश से हो लेंगे...

जय हिंद - जय भारत
..... वंदे मातरम .....

- विशाल चर्चित

सोमवार, 13 अगस्त 2018

अंगूठी -क्यों रूठी 

कल मैंने अंगूठी से पूछा 'अंगूठी 
तुम अपने प्रियतम अंगूठे से क्यों रूठी 
क्या बात हुई जो तुमने उससे मुख मोड़ा 
 उसे अकेले तन्हाई में तड़फता छोड़ा 
और पड़ोस में रहने वाली उंगलियों के साथ 
गुजार रही हो अपने दिन और रात 
अंगूठी बोली क्या करूं 
,मेरा पिया अनपढ़ है ,
मुझे बिलकुल नहीं सुहाता है 
दस्तखत भी नहीं कर सकता ,
अंगूठा लगाता है 
झगड़ालू भी है ,
मुझे टी ली ली ली कह कर चिढ़ाता है 
किसी से उधार लेकर नहीं चुकाता 
अंगूठा दिखाता है 
कभी 'थम्स अप 'करता है ,
कभी 'थम्स डाउन 'कहता है 
मेरे लिए उसके पास वक़्त ही नहीं है ,
फेसबुक और व्हाट्सअप में इतना व्यस्त रहता है 
बस इन्ही कारणों से मेरी उससे नहीं पट पाती है 
और जब मैंने देखा कि उंगलिया ,
अपने इशारों पर पति को नचाती है 
तो उनसे सीखने को ये हुनर ख़ास 
मैं चली आयी हूँ उँगलियों के पास  
फिर भी जब कभी आती है उनकी याद 
तो जब कुछ लिखने को कलम पकड़ने ,
जब उँगली आती है अंगूठे के पास 
मैं कर लेती हूँ उनकी नजदीकियों का अहसास
मैंने कहा जब तुम्हारी और तुम्हारे पति में ,
अलगाव और दूरियां स्पष्ट नज़र आती है 
तो फिर मिलन की प्रथम रस्म याने कि सगाई में ,
ऊँगली में अंगूठी क्यों पहनाई जाती है 
अंगूठी हंसी और बोली कि 
सगाई में अंगूठी इसलिए पहनाई जाए 
ताकि प्रथम मिलन में ही होने वाले पति पत्नी ,
एक दूसरे को अंगूंठा नहीं दिखलायें 

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 
 

मैं गधे का गधा ही रहा 

प्रियतमे तुम बनी ,जब से अर्धांगिनी ,
      मैं हुआ आधा ,तुम चौगुनी बन  गयी 
मैं गधा था,गधे का गधा ही रहा ,
         गाय थी तुम प्रिये ,शेरनी बन गयी 

मैं तो कड़वा,हठीला रहा नीम ही,
     जिसकी पत्ती ,निबोली में कड़वास है 
पेड़ चन्दन का तुम बन गयी हो प्रिये ,
  जिसके कण कण में खुशबू है उच्छवास है 
मैं तो पायल सा खाता रहा ठोकरें ,
    तुम कमर से लिपट ,करघनी बन गयी 
मैं गधा था ,गधे का गधा ही रहा ,
       गाय थी तुम प्रिये ,शेरनी बन गयी
 
मैं था गहरा कुवा,प्यास जिसको लगी ,
     खींच कर मुश्किलों से था पानी पिया 
तुम नदी सी बही ,नित निखरती गयी ,
     सबको सिंचित किया ,नीर जी भर दिया  
मैं तो कांव कांव, कौवे सा करता रहा ,
            तुमने मोती चुगे ,हंसिनी बन  गयी    
मैं गधा था,गधे का गधा ही रहा ,
        गाय थी तुम प्रिये, शेरनी बन गयी
 
मैं तो रोता रहा,बोझा ढोता रहा ,
         बाल सर के उड़े, मैंने उफ़ ना करी 
तुम उड़ाती रही,सारी 'इनकम' मेरी,
        और उड़ती रही,सज संवर,बन परी   
मैं फटे बांस सा ,बेसुरा  ही रहा,
          बांसुरी तुम मधुर रागिनी बन गयी
मैं गधा था ,गधे का गधा ही रहा,
          गाय थी तुम प्रिये ,शेरनी बन गयी
  
फ्यूज ऐसा अकल का उड़ाया मेरी ,
        तुम सदा मुझको कन्फ्यूज करती रही 
मैं कठपुतली बन  नाचता ही रहा ,
          मनमुताबिक मुझे यूज करती रही
मैं तो कुढ़ता रहा और सिकुड़ता रहा ,
          तुम फूली,फली,हस्थिनी  बन गयी 
मैं गधा था गधे का गधा ही रहा ,
          गाय थी तुम प्रिये ,शेरनी बन गयी
   
प्यार का ऐसा चस्का लगाया मुझे,
        चाह में जिसकी ,मैं हो गया बावला 
अपना जादू चला ,तुमने ऐसा छला ,
           उम्र भर नाचता मैं रहा मनचला 
मैं तो उबली सी सब्जी सा फीका रहा ,
        प्रियतमे दाल तुम माखनी बन गयी 
 मैं गधा था,गधे का गधा ही रहा ,
          गाय थी तुम प्रिये ,शेरनी बन  गयी 
         
मदन मोहन बाहेती'घोटू'

सोमवार, 6 अगस्त 2018

बचपन के स्कूल-टीचर की मार 

बचपन की पुरानी यादें ,
जब मेरे मानसपटल पर दौड़ती है 
तो मास्टरजी की मार और टीचरों की डाट ,
मेरा पीछा नहीं छोड़ती है  
जिन्होंने मुझे डाट डाट कर ढीठ बना दिया था 
आज की परिस्तिथियों के अनुकूल ,
एकदम ठीक बना दिया था 
इसी शिक्षण के कारण आज मैं ,
बिना सेंटीमेंटल हुए ,
अपने बॉस की डाट सुन पाता हूँ 
और जब बीबी डाटती है ,
तो भी मुस्कराता हूँ 
बचपन में स्कूल की शैतानियों में 
आता था बड़ा मज़ा 
पर उसके बाद हमें झेलनी पड़ती थी 
मास्टरजी की सजा 
और इन सजाओं के होते थे अनेक प्रकार 
पर सबसे खतरनाक होती थी ,
मास्टरजी की छड़ी की मार 
हम काँप जाते थे जब वो कहते थे हाथ बढ़ाओ 
अपनी गलती पर दो बेंते खाओ 
और उनकी छड़ी की मार से ,
हम सहम सहम जाते थे 
अलग अलग अध्यापक अलग अलग ढंग से ,
अपनी अपनी सजा सुनाते थे 
एक पूछते थे कल का पाठ सुनाओ 
नहीं बता पाये तो बेंच पर खड़े हो जाओ 
हम बेहया से बेंच पर खड़े खड़े मुस्कराते थे 
और मास्टर जी ने देख लिया तो 
कक्षा से निकाल दिए जाते थे 
इस सजा का हम बड़ा मजा उठाते थे मुस्कराकर 
जब तक दूसरा पीरियड आता ,
स्कूल के बाहर जा ,
चले आते थे चने की चाट खाकर 
एक टीचर ,दो उंगुलियों के बीच ,
पेंसिल रख कर उंगुलियों से दबाती थी 
सच बड़ा दर्द होता था ,चीख निकल जाती थी 
और जब हम क्लास में शोर कर,चुप नहीं बैठते थे 
तो इतिहास वाले अध्यापकजी ,हमारे कान ऐंठते थे 
कोई टीचर जब हमें क्लास में ,
किसी से बाते करते हुए पाते थे 
तो दोनों को बेंच पर खड़ा करवा कर ,
एक दुसरे के कान खिंचवाते थे 
गणित वाले टीचर गलती होने पर ,
गालों  पर चपत मारते थे 
अपने घर की भड़ास ,
स्कूल के बच्चों पर निकालते थे 
हिंदी वाले पंडितजी शुद्ध शाकाहारी थे 
पर जब वो कुपित हो जाते थे 
तो सजा 'नॉनवेजिटेरियन ' सुनाते  थे 
और हमें क्लास में मुर्गा बनाते थे 
कोई  एक फुटे वाली स्केल से मारता था ,
जब हमें शरारत करते हुए देखता था 
कोई पीठ पर धौल मारता था 
तो कोई जोर से चाक फेकता था 
उन दिनों 'छड़ी पड़े छम छम 
,विद्या आवे घम घम 'वाला कल्चर था 
सच ,उसमे बड़ा असर था 
मार के डर  से बच्चो में सुधार होता था 
ये सजा नहीं ,मास्टरजी का प्यार होता था 
उन सजाओं ने हमें जीवन में ,
मुसीबत झेलने का पाठ पढ़ाया है 
आज के जीवन में 'स्ट्रगल 'करना सिखाया है 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू '

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