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बुधवार, 8 अक्तूबर 2014

खेल जिंदगी का

         खेल जिंदगी का

ये दुनिया है मैदान एक खेल का ,
            खेलते खेल अपना ,खिलाड़ी कई
कोई फुटबाल,टेनिस ,क्रिकेट खेलता ,
             रेस में कोई पीछे,अगाडी   कई
कोई के मन लगन कि करे गोल वो,
             दौड़ता रहता पीछे है वो बाल के
जीतना चाहता है कोई गेम को,
              गेंद दूजे के पाले में बस डाल के
कोई बॉलिंग करे, कोई बेटिंग करे ,
              कोई चौका तो छक्का लगाए कोई
कोई हो 'हिट विकेट ''एल बी डब्ल्यू 'कोई ,
              तो कभी 'कैच आउट'हो जाए कोई
हाथ में ,पैर में ,गार्ड कितने ही हो,
               कोई बचता नहीं ,गेंद की मार से 
अंपायर खुदा की जब ऊँगली उठे ,
             आदमी होता आउट है संसार से    

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

कभी कृष्ण चन्दर ,कभी तुम नरेन्दर

           कभी कृष्ण चन्दर ,कभी तुम नरेन्दर

कभी फूंकते शंख ,हो तुम समर में,
          कभी हांकते रथ हो तुम सारथी बन
कभी ज्ञान गीता का अर्जुन को देते ,
           चलाते सुदर्शन ,बड़े महारथी बन
जहाँ जाते रंग जाते ,वैसे ही रंग में ,
            बजाते हो ढोलक,कभी बांसुरी तुम
कभी काटते सर ,शिशुपाल का तुम,
           कभी शांत कपिला ,कभी केहरी तुम
कभी द्वारिका में ,कभी इंद्रप्रस्थ में ,
          जहाँ भी हो जाते ,तुम छा जाते सब पर
हरा कौरवों को,जिताते हो  पांडव ,
           बड़े राजनीति  के   पंडित  धुरन्दर   
कभी कंसहन्ता ,तो रणछोड़ भी तुम,
            तुम्हे आती है सारी ,सोलह   कलाएं
कभी कृष्ण चन्दर ,कभी तुम नरेंदर ,
             बड़ी आस तुमसे है सब ही लगाए

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2014

दशहरे के दिन

        दशहरे के दिन

दशहरे के दिन,
वो हमारे घर आये
और बोले ,बच्चे तो रावण देखने गए है ,
हमने सोचा,चलो हम आपको ही देख आएं
हम ने कहा,सच,होता अजीब तमाशा है
रावण को देखने सब  जाते है,
राम को देखने कोई नहीं जाता है
आप तो हमेशा से रूढ़ियाँ तोड़ते आये है
अच्छा किया,रावण देखने नहीं गए,
हमें देखने आएं है  
मगर वहां बच्चों को क्या मज़ा आएगा
आप तो यहाँ है ,
बच्चों को रावण कैसे नज़र आएगा

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

कह रहे पापी अधम रावण जलाया जायेगा....


गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

सचमुच तुम कितने पागल हो ?

       सचमुच तुम कितने पागल हो ?

बेटा हो या बेटी ,उनमे ,काहे को रखते  अंतर हो 
                       सचमुच तुम कितने  पागल  हो
यही सोच कर बेटा होगा ,वंश बढ़ाएगा तुम्हारा
और बुढ़ापे में तुम्हारे ,देगा तुमको ,बड़ा सहारा
अंधे मातपिता को कांवड़ में ले जाए तीर्थ कराने
ब्रह्माजी ने बंद कर दिए ,है अब ऐसे पुत्र  बनाने
पैदा राम नहीं होते अब ,जो कि निभाने वचन पिता के
राज त्याग,चौदह वर्षों तक,खाक   जंगलों की जो फांके
इस कलयुग में तो सबने ही ,भुला दिए संस्कार पुराने
उनसे मत उम्मीद करो कुछ,हुई 'प्रेक्टिकल 'है संताने
तुम जितना भी,जो कुछ उन हित ,करते ये कर्तव्य तुम्हारा
प्रतिकार में वृद्धाश्रम ही ,देगा शायद ,तुम्हे सहारा
संस्कृति और संस्कारों में ,बहुत बढ़ गया पॉल्यूशन है
केवल अपने ही बारे में ,सोचा करता अब हर जन है
बेटी भले परायी होती,पर उसमे होता अपनापन
ख्याल बुढ़ापे में रखती है ,प्यार लुटाती सारा जीवन
फिर भी तुम बेटी के बदले ,बेटा हो,  देते यह  बल हो
इस पॉल्यूशन के युग मे भी,शुद्ध ढूढ़ते  गंगाजल हो
                               सचमुच तुम कितने  पागल हो
मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

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